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________________ 364 श्रीमद्भगवद्गीता स्तरके ऊपर लक्ष्य करके अहंकारको आश्रय किया था, और मनको भी लेकर विषयमें जब प्रथम छूआ छूत लगाया, वही तुम्हारी घोर अज्ञानता रूप रात्रि थी जिसके अंधियारेमें पड़कर तुमने निज "मैं" को देखनेकी शक्ति भी खो दी थी। तुम जो ऐसे स्वप्रकाश हो सो तुमने भी अव्यक्त प्रकृतिके गर्भमें प्रलोन होकर जीव साज सज लिया था, तुम्हारे उसी घोर दुर्दिनको रात्रि कहते हैं। यही तुम्हारा दिन, और यही रात्रि है। जब तुम 'आत्मा' में रहते हो, तब तुम सर्वज्ञ हो, और जब तुम अात्महारा होते हो, तब सब जानकारीको भूलकर अज्ञ बन जाते हो, और अव्यक्तमें डूब जाते हो // 18 // भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे // 16 // अन्वयः। हे पार्थ / स एव अयं भूतग्रामः अवशः ( सन् ) भूत्वा भूत्वा राज्यागमे प्रलीयते. ( पुनः ) अहरागमे प्रभवति / / 19 / / अनुवाद। हे पार्थ ! यही बह भूत-समूह विवश होकर बारंबार जन्म ले। हुए रात्रिके आगमनमें प्रलयको प्राप्त होता है, और अहः ( दिवस ) के आगमनमें उत्पन्न होता है / / 19 // व्याख्या। पांच इक मिलकर जहां निवास करें उसीको ग्राम कहते हैं, अर्थात् यह शरीर। वही शरीर भी फिर "मैं" हूँ। हरि ! हरि !! क्या तमाशा है ? अभी 'मैं' सर्वज्ञ सर्वशक्तिकारण था, फिर भूतोंके गांव रूपमें शरीर तज लिया ? वही शरीर फिर बारंबार मरता जनमता और जनमता मरता है। प्रकृति के वशमें 'मैं' विवश हो रहा हूं, रात्रिकी विवशताने मुझको अटका रक्खा, ढांक रक्खा / कैसा करके ढांक रक्खा ! वाह वाह ! रे कृपण साधक ! यह देखो, तुम जो भोग-लालसा छोड़ नहीं सकते, इसका मजा तो एकबार देखो। फिर देखो, अहः श्रानेसे ही अर्थात् सूर्योदयके थोडासा
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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