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________________ ३५६ श्रीमद्भगवद्गीता सबका ही धाता (धारक ) कह करके आत्माको (अपनेको ) प्रत्यक्ष करता है। इसलिये इस पुरुषको "सर्वस्यधाता” कहा गया है। "अचिन्त्यरूप” अर्थात् यह रूप चिन्ता करके मिल नहीं सकता ; क्योंकि, कृत कर्मका सोचना ही चिन्ता है। कृत कर्मके भीतर यह पुरुष नहीं है। जो कुछ कर्म है, उसके ठीक ऊपरमें ही यह पुरुष है। इसीलिये "अचिन्त्यरूपम्" है। ___ "आदित्यवर्ण"-अर्थात् ज्योंही साधक आकाशका अणु परित्याग करके ब्रह्माणुको आक्रमण करेंगे, त्याही प्रकाशमय आदित्यरूप सूर्य्य सदृश दीप्तिशाली ( मलस्वरूप मनोबुद्धिके अगोचर) निजबोध रूप भास्वर इस पुरुषमें आ पड़ते हैं । इस पुरुषमें आ पड़ना भी वही है जो साधकका मर-जगतके साधनाका शेष सीमा है। यहाँसे फिर कर पुनः पार्थिव अणुमें न जाना ही "युक्तावस्था" है। साधकका इस पुरुषमें पहुँचनेके पहलेसे हुँशियार होना उचित है। ऐसा होनेसे ही और पुनरावृत्ति नहीं है। जब आकाशका अणु परित्याग करके ब्रह्माणुमें जाना होता है, तब पूर्व पूर्व श्लोक कथित क्रमानुसार आज्ञाचक्रमें आनेसे ही मन और प्राण साथ ही साथ उस पुरुषाभिमुखमें लक्ष्य करता है, इसलिये अचल, अटल स्थिर हो जाता है। इस समय क्रियाशीला प्रकृति निष्क्रिय ब्रह्म-मिलनमें सचेष्ट होती है इस करके, माया-ब्रह्मका संयोग प्रारम्भ होता है। जैसे सागर-संगममें गंगाका वेग पड़कर धीरे धीरे प्रशान्त मूत्ति धारण करके सागर हो जाता है, तैसे जब जीवभाव प्राकृतिक लीलामय पीठसे खेल उठाकर शिवभावके पीठमें घुमके बैठता है, तत्क्षणात् यह पुरुष हो जाता है। जबतक प्राणवायु भ्र मध्यमें उठकर अज्ञानचक्र भेद न करे, तबतक ही चञ्चलता है। जब आज्ञाचक्र भेद करके ऊपर उठ जाती है, तत्क्षणात् निष्कामताका प्रारम्भ होता है और इस अवस्थाकी प्राप्ति होती है। ॥१०॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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