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________________ ३४३ . अष्टम अध्याय करनेके समय साधक भगवान्को पुरुषोत्तम और मधुसूदन ( दो) भावसे प्रत्यक्ष करते हैं अर्थात् साधक अब क्षरब्रह्म ( पञ्चतत्त्व ) से सम्बन्धविहीन हो करके कूटस्थमें अक्षर ब्रह्मके समीपवर्ती होकर देखते हैं कि, कूटस्थचैतन्य श्रीभगवान्ही अक्षरातीत निरञ्जन पुरुष-पुरुषोत्तम हैं, पुन: यह पुरुष ही पञ्चतत्त्वमें विषय-भोगाकांक्षा रूप मधु (मिठास ) का नाशक-मधुसूदन है। इसलिये इन दो श्लोकोंमें साधक भगवान्को पुरुषोत्तम और मधुसूदन नामसे सम्बोधन किये हैं। और भी, विपदकालमें भगवान् मधुसूदन रूपसे ही आश्रय होते हैं; जीवका प्रयाणकाल ( मृत्युसमय ) से बढ़कर विपद और नहीं है। अतएव अर्जुन प्रयाणकालकी कथा कहते समय सधुसूदन नाम कहे हैं। [ पुरुषोत्तम की व्याख्या १५ श अः १८ श्लोक और मधुसूदन की व्याख्या १म अ: ३४ श्लोकमें देखो] ॥१॥२॥ श्रीभगवानुवाच। अक्षरं परमं ब्रह्म स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥३॥ अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतांवर ॥ ४ ॥ - अन्वयः। श्री भगवान् उवाच। ( यत् ) परमं अक्षरं ( तत् ) ब्रह्म, स्वभावः अध्यात्म उच्यते, भूतभावोद्भवकरः विसर्गः कर्म संज्ञितः हे देहभृतां वर ! क्षरः भावः अधिभूतं, पुरुषः अधिदैवतं, अत्र देहे अहं एव अधियज्ञः च (उच्यते) ॥३॥४॥ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं-परम जो अक्षर वहो ब्रह्म है; स्वभावही अध्यात्म नामसे उक्त होता है; जो विसर्ग ( यज्ञ ) भूतभावका उद्भव करनेवाला, उसीका नाम कम है। हे देहीश्रेष्ठ ! जिसका क्षय है, उसको अधिभूत कहते हैं। पुषही अधिदेवता है, और इस येइके भीतर "मैं" ही अधियज्ञ हूँ॥३॥ ४ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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