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________________ ३१४ श्रीमद्भगवद्गीता अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ ५॥ अन्वयः । हे महाबाहो ! इयं ( अष्टधा भिन्ना प्रकृति: ) अपरा ( जड़त्वात् निकृष्टा अशुद्धा अनर्थकरी संसाररूपा बन्धनात्मिका ) इतः तु अन्यां मे जीवभूतां ( जीवस्वरूपां प्राणधारणनिमित्तभूत) प्रकृति परां ( प्रकृष्टां ) विद्धि, यया (चेतनया क्षेत्रज्ञस्वरूपया प्रकृत्या ) इदं जगत् धार्य्यते ॥ ५ ॥ अनुवाद । हे महाबाहो ! यह अपरा है; परन्तु इससे स्वतन्त्र हमारा जो जीवरूपा एक प्रकृति है, जो इस जगत्‌को धारण करके है, उनको परा कह करके जानना ।। ५ ।। व्याख्या । जो प्रकृति आठ अंशमें विभक्ता, सो जड़ है, इसलिये अशुद्धा, अनर्थकरी और संसार - बन्धनका कारणरूपा, इसलिये निकृष्टा है । परन्तु जो प्रकृति चेतन, जीवस्वरूप, और प्राण धारणका कारण है, जो ब्रह्मरन्ध्रसे मूलाधार पर्यन्त ब्रह्मनाड़ीमें विराजते हुए शरीर रूप जगत्को धारण करनेके लिये जगद्धात्री नाम लिये हैं, वही चैतन्य प्रकृति ही परा ( श्रेष्ठा) । असल बात, प्रकृति दो, - परा और अपरा । परा - - चैतन्या प्रकृति, अपरा - जड़ प्रकृति, अपरा - क्षेत्र, परा-क्षेत्रज्ञ, क्षेत्रकी धाता; श्रतएव परा श्रेष्ठ है, अपरा निकृष्ट है । साधक अब इन सबको निजबोधरूप अपरोक्ष ज्ञानसे अपने शरीर के भीतर प्रत्यक्ष करते हैं। ( ५म चित्र देखो ) ॥ ५ । । एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ ६ ॥ अन्वयः । सर्वाणि भूतानि ( स्थावरजङ्गमात्मकानि ) एतद्योनीनि ( एते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञ लक्षणे मत्प्रकृती योनी कारणभूने येषां तानि ) इति उपधारय (जानीहि ); ( अत: ) अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः ( परमकारणं) तथा प्रलयः ( संहर्त्ता ) ॥ ६ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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