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________________ ३०३ षष्ठ अध्याय हे कुरुनन्दन ! संसिद्धौ (संसिद्धिप्राप्तिनिमित्त) ततश्च भूयः ( तस्मात् पूर्वकृतसंस्कारात् अधिकं ) यतते ( यत्नं करोति ) ॥ ४३ ।। अनुवाद। हे कुरुनन्दन ! वहाँ वह पूर्वदेह जात उसी बुद्धिसंयोग लाभ करते हैं, और संसिद्धिकी प्राप्ति के लिये पहले से भी अधिक यतन करते हैं ॥ ४३ ॥ व्याख्या। जिस प्रकार बुद्धिसंयोग होनेसे पूर्व जनममें ब्राह्मीस्थिति लाभके लिये यत्न किये थे, पवित्र लक्ष्मीमन्तके घरमें अथवा धीमान योगीयोंके कुलमें जन्म ग्रहण करके वह पुरुष उसी बुद्धिउसी ब्रह्मविषयक बुद्धि ही लाभ करते हैं, और इस जन्ममें पूर्वसे भी अधिक यत्न सहकार सिद्धिलाभकी चेष्टा करते हैं ॥४३॥. .. पूर्वाभ्यासेन तेनैव हियते यवशोऽपि सः। .. . जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते ॥४४॥ जन्वयः । हि ( 4तः ) सः ( योगभ्रष्टः ) अवशः अपि ( कुतश्चित् अन्तरामात् अनिच्छन्नपि ) तेन पूर्वाभ्यासेन ( पूर्वजन्मकृतयोगाभ्यासजनितेन संस्कारेण ) एव ह्रियते ( संसिद्धौ आकृष्यते, विषयेभ्यः परावृत्य ब्रह्मनिष्ठः क्रियते )। योगस्य जिज्ञासुः अपि ( योगस्य स्वरूपं ज्ञातुं इच्छन् योगमार्गे प्रवृत्तमात्रोऽपि ) सः शब्द. ब्रह्म ( वेद ) अतिवर्तते ( अतिकामति ) ॥ ४४ ॥ ___ अनुवाद। क्योंकि वह भ्रष्ट योगी अवश ( अनिच्छुक ) होनेसे भी, उसी पूर्वाभ्यास द्वारा आकृष्ट होते हैं; और योगका तत्त्व जिज्ञासु होते मात्र ही शब्दब्रह्म को अतिक्रम करते हैं ॥ ४४ ॥ व्याख्या। योगभ्रष्ट योगी सिद्धि लाभमें पूर्व जन्मसे अधिकतर यत्न करते हैं; जिसका कारण यह है कि वह योगी पूर्व जन्मके योगाभ्यासके लिये संस्कारकी प्रबल ताड़नामें चालित होते हैं। यदि वह योगी अवश भी हो जाये, अर्थात् मनमें अगर विषयभोग-वासनाका संस्कार उदय हो करके अन्तराय स्वरूप होनेसे योगसंसिद्धि प्राप्ति विषयमें अनिच्छुक भी हो, तो भी पूर्वकृत योगज संस्कार इतमा प्रबल
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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