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________________ षष्ठ अध्याय २६६ व्याख्या। मेघ संचारके बाद, प्रतिकूल वायु द्वारा छिन्न भिन्न होनेसे वह मेघ जैसे एक जगहमें स्थिर नहीं होता, और स्थितिके अभाव करके अनुकूल वायु भी नहीं पाता, जिसलिये गलकर जल भी हो नहीं सकता,-क्रम अनुसार न मेघ, न जल, इन दोनों अवस्था में से किसी एकको न पाकरके, वायुकी ताड़ना करके आकाशमें विलीन होता है, अयति योगी लोग अथवा जो लोग देव विपाकमें पड़ करके ब्रह्ममार्गमें अर्थात् ब्रह्माकाश वा चिदाकाशमें प्रतिष्ठालाम करने न • पाके, विमूढ़ हो जाते हैं, कौन इष्ट है वह धारणा नहीं कर सकते,. वह सब क्या योग (ज्ञान ), क्या कर्म दोनोंसे ही भ्रष्ट हो जाके साधारण मूढ़ सरिसे संसारमें मिल करके अधोगतिका पावेंगे ? ॥३८॥ एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः। त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३६ ।। अन्वयः। हे कृष्ण। मे ( मम ) एतत् संशयं अशेषतः छेत्तु (अपनेतु) अर्हसि; त्वदन्यः ( त्वत्तोऽन्यः ऋषिदेवो वा ) अस्य संशयस्य छेत्ता (नाशयिता) न हि उपपद्यते ( न सम्भवति ) ॥ ३९॥ अनुवाद। हे कृष्ण। निःशेष रूप करके हमारा यह संशय आप छेदन कर दीजिये; इस संशयका छेत्ता बिना आप और दूसरा कोई हो नहीं सकता ॥ ३९॥ व्याख्या। श्रीकृष्ण ही अक्षर पुरुष-ईश्वर है। उन्होंमें सर्वज्ञत्व बीज वर्तमान, परिपूर्ण है। दूसरे जितने देव, ऋषि, मुनि आदि सुषुम्ना मार्गमें अवस्थित हैं सब ही इस पूर्ण के अंश हैं; इसलिये उन लोगका सर्वज्ञता भी तदनुरूप है। जबतक इस परिपूर्ण अक्षर ब्रह्ममें मिशकर एकरस न हुआ जाय, तब तक ही पूर्व और अंशत्व रूप तारतम्य रहता है। भूत-भविष्यत्को वर्तमानके सदृश देखना हो तो-सर्वशंशय नाश करना हो तो, उस अक्षर ब्रह्ममें चित्तसंयम करना होता है, दूसरे कही करनेसे नहीं होगा। इसलिये साधिक
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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