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________________ षष्ठ अध्याय २७५ अनुवाद। यथोक्त विधान अनुसार मनको सदा समाहित करते करते संक्त चित्त होकर योगी, आत्मामें स्थित जो निर्वाण रूप परम शान्ति, उसे प्राप्त होते हैं ॥ १५ ॥ - व्याख्या। ब्रह्मनिर्वाण ही परम शान्ति-योगका चरम फल है। सदा काल समाधि अभ्यास करते करते ही वह प्राप्त होता है। इस श्लोकके 'सदा' शब्द और १० म श्लोकके 'सतत' शब्द एकार्थ प्रतिपादक है अर्थात् इन दोनोंका हो अर्थ 'सर्वदा' है। अब बात यह है कि, योगाभ्यासीके लिये अविच्छिन्न भावमें समाधि भोग असम्भव है; वह होनेसे बात एक कैसे हुई ? फिर योगशास्त्र में है कि दिवा न पूययेल्लिङ्ग रात्रौ नैव च पूजयेत्। सर्वदा पूजयेल्लिङ्ग दिवारात्रिनिरोधतः।” अर्थात् तारक ब्रह्म कूटस्थ पुरुषकी पूजा दिनमें भी नहीं करना, रात्रिमें भी नहीं करना, सर्वदा करना; वह होनेसे हो सर्वसिद्धि मिलता है * । “सर्वदा" किसको कहते हैं ? सूर्योदय से सूर्यास्त पर्य्यन्त दिवा, और सूर्यास्तसे सूर्योदय पर्य्यन्त निशा है। इस निशामें सन्ध्यासे साढ़े नौ बजे समय पर्यन्त और साढ़े चार बजेसे सबेरे पर्यन्त समयको रात्रि कहते हैं, और साढ़े नौ बजे समय के बाद साढ़े चार बजे समयके भीतर इस सात घण्टे समयको महानिशा-महामहानिशा–कालरात्रि वा सर्वदा कहते हैं । इस समयमें * यह अर्थ इस श्लोकके बाहर वाला अर्थ है, इससे बाहर वाला कालनिरूपण किया हुआ है। इसका प्राध्यात्मिक अर्थ है, दिषा - सूर्यसंचारमें अर्थात् पिङ्गलामें, रात्रौ-चन्द्रसंचारमै अर्थात् इडामें। कूटस्थ ब्रह्म की पूजा करना हो तो इड़ा किम्वा पिङ्गलाके भीतर देके प्राण चालना करना न चाहिये, इड़ा पिङ्गला निरोध करके सुषुम्नाके भीतर से प्राणचालन करने होता है (क्रिया गुरुमुखगम्य ); सो करनेसे हो मन स्थिर होता है, और कूटस्थ भेद होके परम शिवमें लय होता है। "सुषुम्नान्तर्गतेवायौ मनः स्थैर्य प्रजायते"। सुषुम्ना ही सर्वसिद्धिदायिनी है जिस लिये इसको "सर्वदा" कहते हैं ॥ १५ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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