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________________ २२ अवतरणिका होनेके समय सुषम्नाका वह ब्रह्मरन्ध्रस्थ बन्द मुख खुल जाकर दोनों शाखाके छिद्र मिलके एक हो जाते हैं। इसीका नाम ब्रह्मरन्ध्रकका फट जाना है। तीन नाड़ियां जितने स्थानमें परस्पर काटकर संयुक्त हुई हैं, सर्वत्र ऊपर नीचे दोनों तरफमें ही तीन तीन करके मुख हुआ है; परन्तु मस्तक-प्रन्थिमें सुषुम्ना दो शाखाओंमें विभक्त होनेसे वहां ऊर्ध्वदिशामें चार मुख हुई है। मस्तक-प्रन्थिके इस चारमुख-युक्त-स्थानमें मनको स्थापन करके, वहांसे ठीक सीधे भ्रमध्यमें मानस दृष्टि निक्षेप करना होता है, और प्राणको सुषम्नाके उस निम्नशाखासे भ्र मध्यमें प्रवाहित करना होता है। शरीर ही क्षेत्र है। गुणक्रियाक विभाग अनुसार यह शरीर तीन अशोंमें विभक्त है ( सं चित्र देखो)। दश इन्द्रिययुक्त सर्व शरीर एक अंश है। इसमें रजस्तमः ३य चित्र प्रधान है, इसका नामा कमे- सहस्रार ... क्षेत्र वा कुरुक्षेत्र है। मूला धारसे आज्ञा पर्यन्त षट्चक्र . आज्ञा . ... दूसरा अंश है; यहाँ सस्क- विशुद्ध ... रजः प्रधान; इसका नाम अनाहत .... धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र है। और मणिपुर ... बाझाके ऊपरसे सहस्रार तक स्वाधिष्टान ... "दशाङ्गुल" तृतीय अंश है, मूलाधार ... यहां सास्वतमः प्रधान है। इसका नाम धर्मक्षेत्र है । यह धर्मक्षेत्र निष्क्रिय भूमि है। वितरित्र अर्थात् धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र नामक षटचक्र ही साधन-समरका सीत्रको बात ही गीताके प्रथम श्लोकमें कहा गया है । (तमःसत्त्व प्रधान) | कुरुक्षेल पन पक्षव धर्मझव (रजःसत्त्व प्रधान) (२) (रजस्तमः प्रधान (१)
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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