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________________ २७० श्रीमद्भगवद्गीता हुआ हो वही) करना होता है, यह आसन "चलाजिनकुशोत्तरम्" होना चाहिये अर्थात् पहिले कुश बिछाके * उसके ऊपर लोमश मृगचम अथवा कम्बल, उसके ऊपर गरद, तसर आदि ( कीटवाले ) रंग न लगाया हुआ रेशमका वस्त्र बिछा लेना, उसके ऊपर आसन करके बैठना। इस चैलाजिनकुशोपरिस्थित अपना-आसन जमीनसे अधिक ऊंचा न हो, जमीनके बराबर भी न हो, भीगा (गीला ) हुश्रा वा शैत्य न लगने पावे अथवा हठात् कोई कीटादि सरीसृप उसके ऊपर न उठने पावे, इतना ऊंचा ( अन्दाज तीन पाव वा एक हाथ ऊंचा) बेदीके ऊपर होनेसे ही होवेगा। और भो, आसनमें इतना अभ्यस्त होना होगा जैसे बहुत देर तक बैठ रहनेसे भी किसी प्रकारका क्लेश उत्पन्न न हो, जैसे शरीर में टन टन् झन् झनादिसे आसन छोड़ना न पड़े। और "उपविश्य" शब्दसे यह समझा जाता है कि, श्रासनके ऊपर खड़े होके अथवा सोके आसन मारना नहीं चाहिये, योगाभ्यास कालमें बैठ करके आसन भारना चाहिये। यह बैठा हुआ-आसन प्रधानतः दो प्रकारका लिया गया है जिसे नीचे उद्धृत कर दिया गया ** | इस प्रकार आसन करके बैठना योगका बहिरंग है। किन्तु योगी बाह्यिक देश-काल-पात्र तिरपेक्ष हैं; शरीर ही उनका सब है, शरीर ही * कुशाकी होरी देके अथवा कुशाको चटाई बिनवाके आसन तैयार करना पड़ता है। कुश बिना दूसरी कोई चीज ( जेसे पटुवाकी डोरी, कासिकी डोरी, शनकी डोरी प्रभृति ) देके कुशासन बिनवा लेनेसे नहीं होवेगा ॥ ११ ॥ १२ ॥ ** आसन, अष्टांग योगका तृतीयांग है, यह आसन अनेक प्रकारका होनेसे भी, स्वस्तिकासन ( सहजासन ) और सिद्धासन ये दो प्रकार प्रासन ही योगाभ्यासके लिये प्रधान है, सो ऐसे हैं (१) “जानूोरन्तरे सम्यक् कृत्वा पादतले ठभे। ऋजुकायः समासीनः स्वस्तिकं तत् प्रवक्ष्यते"। (२) योनिस्थानकमंघ्रिमूलघटितं कृत्वा दृढ़ विन्यसेन मेढ़ पादमथकमेव हृदये कृत्वा हर्नुसुस्थिर। स्थाणुः संयमितेन्द्रियोऽचलदृशा पश्येत् भ्र वोरन्तरं, ह्य तन्मोक्षकपाटभेदजनक सिद्धासनं प्रोच्यते"।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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