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________________ षष्ठ अध्याय २६७. जाता है, किसी प्रकारका ज्ञान भी नहीं रहता, तत्वज्ञान और तत्त्वातीतका ज्ञान सब मिट जाता है, स्फुरण मात्रका अभाव हो जाता है, तब ही विज्ञान अर्थात् विगत ज्ञान होता है। इस अवस्था में 'विज्ञान' और 'अज्ञान' समान अर्थ बोधक है अर्थात् ज्ञानका परिपाक अवस्था। जो पुरुष प्राकृतिकज्ञान ( तत्त्वज्ञान वा विशेष ज्ञान), आत्मिक ज्ञान (तत्वातीतका ज्ञान वा ज्ञान) और वृत्तिविस्मरण अवस्था (विगत ज्ञान ) सब जान चुके, उनके लिये और जाननेको कुछ बाकी न रहने से, उनका अन्तःकरण तृप्त हुआ है। इस प्रकार साधक ही "ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा” है। अतएव वह "कूटस्थ” अर्थात् उनमें कम्पन और चंचलता मात्र न रहनेसे वह पुरुप निर्विकार है,-"जितेन्द्रिय” अर्थात् इन्द्रियवृत्ति समूह उनके अधीन होते हैं। उनके परिपूर्ण होके ब्रह्मभावमें रहनेसे उनका इन्द्रिय समूह ब्रह्म बिना दूसरा कुछ अवलम्बन नहीं पाता, इसलिये साम्य मावमें रहता है। “सर्व ब्रह्ममयं" होनेसे ईटा, पत्थर, सोना, चांदी प्रभृति सब उनके लिये समान हो जाता है । जो साधक इस प्रकार अवस्था प्राप्त हुये हैं, वही साधक युक्त वा योगारूढ़ सुहृन्मित्राय्युदासीनमध्यस्थद्वष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेष समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ६ ॥ अन्वयः। सुहृन्मित्रायुदासोनमध्यस्थवष्यबन्धुषु ( सुहृत् = प्रत्युपकारं अनपेक्ष्य उपकर्ता, मित्रं स्नेहवान् , अरि:= शत्रुः, उदासोनः= विषदमानयोः उभयोः अपि उपेक्षक, मध्यस्थ = विवदमानयोः उभयोः अपि हिताशंसी, द्वेष्यः = द्वष विषयः, बन्धुः = सम्बन्धी; एतेषु ) साधुषु ( सदाचारेषु ) पापेषु ( दुराचारेषु ) च अपि समबुद्धिः (रागद्वेषशून्यबुद्धिः) विशिष्यते (योगारूढ़ानां सर्वां उत्तम इत्यर्थ : ) ॥ ९॥ अनुवाद। सुहृत् , मित्र, अरि, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, साधु और पानी इन समस्तमें समबुद्धि सम्पन्न जो पुरुष, योगारूढ़ साधकोंके भीतर वही श्रेष्ठ
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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