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________________ २४८ श्रीमद्भगवद्गीता साधन अवस्थामें असम्प्रज्ञात समाधि भक्त हो जानेके पश्चात् जो अवस्था होती है, वही जीवन्मुक्तावस्था (ज्ञानासीनावस्था ) है। उस समय किंचितमात्रभी कश्मल नहीं रहता; तब सबही ज्ञानमय वा ब्रह्ममय-बुद्धि ब्रह्म, चित्त ब्रह्म, स्थिति ब्रह्म, अयन ब्रह्म; इसलिये साधक जीवन्मुक्त हैं। इसी कारण करके शरीर त्याग होनेसे हो विदेह मुक्ति वा अपुनरावृत्ति गति प्राप्ति होती है । १७ ।। विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥ अन्वयः। (ते पण्डित-: (ज्ञानिनः ) विद्याविनयसम्पन्ने (बिद्या आत्मबोधः विनयश्च उपशमः ताभ्यां सम्पन्नः तस्मिन् , उत्तमसंस्कारवति) ब्राह्मणे, गषि, हस्तिनि, शुनि ( कुक्करे ), श्वपाके ( चण्डाले ) च एव समदर्शिनः ( ब्रह्मदशिनः भवन्ति ) ॥१८॥ अनुवाद। वह ज्ञानीगण विद्याविनय-सम्पन्न ब्राह्मणमें; गाभिमें, हस्तिमें, कुक्कुरमें और चाण्डाल में भी समदर्शी (समान एक ब्रह्म स्वरूपसे सबका दर्शन करते है।॥१८॥ व्याख्या। (जो सब महात्मा ज्ञानावस्था पाके अपुनरावृत्ति गति के अधिकारी हो चुके हैं, वह लोग संसारमें रह करके किस प्रकार चालसे चला फिरा करते हैं, वही इस श्लोकमें और पर श्लोकमें कहा गया है)। जिन लोगोंका आदित्यवत् ज्ञानका प्रकाश होता है, उनकी सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि स्थापित होनेसे भेदाभेद नहीं रहता, भला बुरा बोध नहीं रहता, शुचि अशुचिकी उद्वग नहीं रहता। सब एक ब्रह्ममय होता है, ब्राह्मण भी जो ब्रह्मा-गौ, हाथी, कुत्ता, चण्डाल भी वही ब्रह्म है-उनके चक्षुमें जगत् "सर्व ब्रह्ममय" भासमान है ॥ १८ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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