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________________ २४६ श्रीमद्भगवद्गीता नाश-शील इन्द्रिय-वृत्ति समूह मोहको प्राप्त होता है अर्थात् निष्क्रिय होयके जड़ी भूतप्राय हो जाता है * ॥ १५ ।। ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम् ॥ १६ ॥ अन्धयः । तु ( किन्तु ) येषां तत् अज्ञानं आत्मनः ज्ञानेन ( समाधिभंगेन ) पुनरहंज्ञानप्राप्तिद्वारेण ), नाशितं, तेषो तत् ज्ञानं ( आत्मज्ञानं ) आदित्यवत् ( भूत्वा) परं ( परमार्थतत्त्व ) प्रकाशयति ॥ १६ ॥ . अनुवाद। किन्तु जिन लोगोंका वह अज्ञान आत्मज्ञान द्वारा विनष्ठ होता है, उन लोगोंका वह आत्मज्ञान आदित्य सदृश (स्वप्रकाश और पर-प्रकाशक) होके परमार्थ तत्त्वको प्रकाश कर देते रहते हैं ॥ १६ ।। व्याख्या। वह सब-मिट जाना अवस्था ( समाधि) भंग होके प्रभु-अवस्थामें उतर आनेके पश्चात् जिस आत्मज्ञानका विकाश होता है, वह आत्मज्ञान आदित्यवत् प्रकाशमय है, उसमें ज्ञान, ज्ञेय और इस शरीर रूप विश्वका प्रत्येक अनु परमाणु पर्यन्त प्रत्यक्ष होता * यह जो अज्ञान अवस्था होतो है, इसमें सर्व वृत्ति जड़ीभूत प्रायः-निष्क्रिय ही रहता है, लय होता नहीं, क्योंकि देह रहता है। देह त्याग न होनेसे विश्वका अर्थात् सर्ववृत्तिका लय नहीं होता। वह अज्ञान-अवस्था साधनाका चरम फल करके तो होता ही है, मृत्यु होनेसे भी जीवमात्रके होता है। असम्प्रज्ञात-समाधि भङ्ग हो जायके विषयमें उतर आनेसे साधकका जसे सब वृत्ति क्रियामुखी होतो है, वैसे जीव मृत्युके बाद जन्म द्वारा पूनराय देह धारण करनेसे पूर्वजन्मके सब वृत्ति ही एक एक करके प्रकाश होता है। मृत्युके अज्ञानता और समाधिको अज्ञानतामें प्रभेद यह है कि,-मृत्युमें देह त्याग होता है, समाधिमें देह त्याग नहीं होता; जीव मृत्युमें प्रकृतिकी अधीन ही रहते हैं, समाधि स्वाधीन होते हैं; भृत्युमें असाधकके लिये विषय और योगभ्रष्ट साधकके लिये ज्ञान अवलम्बन रहता है, समाधिमें कुछ भी नहीं रहता निरालम्ब होके निर्वाण मुक्ति होती है ।। १५॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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