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________________ २४२ श्रीमद्भगवद्गीता बाद प्रभु, उसके बाद विभु होयके अज्ञान (परिपूर्णत्व हेतु सर्वसम्बन्ध रहित ) होते हैं। ब्रह्ममें कर्म समर्पण करके काय, मन, बुद्धि और "केवल इन्द्रिय” द्वारा योगानुष्ठान करनेसे कर्मफल पर्यन्त ईश्वरार्पित (ब्रह्मार्पण) हो जाता है, तब साधक युक्त होते हैं, अर्थात् उनके अन्तःकरणके चारो वृत्ति सम्पूर्ण रूपसे अन्तमुखी होयके कूटस्थमें युक्त होता है । ( यही है साधकके मनःक्षेत्रकी क्रिया,-४र्थ अध्याय ७म श्लोकके व्याख्या देखो)। इस समय साधक एकदम कूटस्थमें उठ जाते हैं, नीचेके साथ उनका कोई सम्पर्क रहता नहीं, और नीचेवाली शक्ति द्वारा किसी प्रकारसे आक्रान्त भी होते नहीं इस करके अविचलित रहते हैं। इस अविचलित अवस्थामें परमार्थदर्शन करके जो शान्तिमय आनन्द होता, उसीका नाम नैष्ठिकी शान्ति है। इस नैष्ठिकीशान्ति-अवस्थाही बुद्धि-क्षेत्रकी क्रिया है। इस अवस्थामें विशुद्धात्मा होनेसे समझने और देखनेमें आता है कि, युक्त न होनेसे, अर्थात् आज्ञाचक्रमें आके स्थिर न होना पर्यन्त, उस शान्तिमय अवस्था पाया जाता नहीं; क्योंकि अयुक्त अवस्थामें (आज्ञाके नीचे जबतक रहना होय, तब तक ) रजोगुण-समुद्भव कामके द्वारा आक्रान्त होनेसे कर्मफलमें आसक्त होयके बन्धनमें पड़ने होता है-पथहारा होने पड़ता है-उचेमें उठ जाने सकते नहीं ॥ १२ ॥ सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन् न कारयन् ॥ १३ ॥ अन्वयः। देही मनसा (विवेकबुद्वया) सर्वकर्माणि संन्यस्य ( कर्मादौ अकर्म-सन्दर्शनेन संत्यज्य ) नवद्वारे पुरे ( देहे ) वशी ( जितेन्द्रियः भूत्वा ) न एव कुर्वन् न एष कारयन् सुख ( यथास्यात् तथा ) आस्ते ( तिष्ठति ) ॥ १३ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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