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________________ २४० . श्रीमद्भगवद्गीता उठ जाना पड़ता है, कुछ किसीको स्पर्श करना न चाहिये, इसीका नाम संगत्याग करना है। इस रीतिसे क्रिया करनेसे पापमें लिप्त होना नहीं पड़ता, अर्थात् चांचल्य जनित कर्म बन्धनमें पड़ना नहीं होता। कमल पत्र जैसी जलमें जन्म लेकर जलमें ही बढ़ता हुआ तथा जल में ही रहके जलमें लिप्त नहीं होता-जलका छापा उसमें नहीं पड़ता, ब्रह्मार्पित-कर्म संग-त्यागी साधक भी वैसे कर्मका आश्रय करके ही उर्द्ध क्षेत्रमें उठते हैं, कर्मको आश्रय करके ही प्रारब्ध अनुसार विषय भोग करते हैं, करके भी कर्ममें आबद्ध नहीं होते ॥१०॥ कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ११ ॥ अन्वयः। योगिनः आत्मशुद्वये (शरीरं चित्रं च परिशुद्धयर्थे ) संगं त्यक्त्वा (फलाकांक्षारहितः सन् ) मनसा बुद्धया केवलैः ( ममत्वबुद्धिशून्यः ) इन्द्रियैः अपि कर्म कुर्वन्ति ॥ १० ॥ अनुवाद। योगीगण आत्मशुद्धिके लिये, फल, कलाकांक्षा त्याग करके शरीर, मन, बुद्धि तथा केवल इन्द्रिय सकलसे ही कर्म करते हैं ॥ ११ ॥ व्याख्या। [ दशम श्लोकके प्रणालीसे योगीगण कितने प्रकारके क्रिया करते हैं, वह इस श्लोकमें कहा हुआ है ।। _ वायु-पित्त-कफके क्रियासे शरीरकी नाड़ी-पथ सब बंद रहता है। उस अवस्थामें उस पथमें प्राण चालन करके उठा जा नहीं सकता; वह समस्त ही शारीरिक मल है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस प्रभृति विषयके प्रति परम रमणीय बोध करके आसक्त होयके वासना पर होना ही चित्तका मल है। चित्तका मल रहते आत्मामें निष्ठा नहीं होता। इसलिये शरीर और चित्तका मल दूर करना आवश्यक है, और इसके फलका नाम आत्मशुद्धि है। इस आत्मशुद्धिके लिये योगीगण गुरु
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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