SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ __श्रीमद्भगवद्गीता हैं-"मुखाम्भोजलक्ष्मीश्चतुर्भागवेदः”। जिसलिये वेदको भी ब्रह्माजी का मुख कहते हैं। चतुष्कोणाकार पृथ्वी स्थानके भीतर त्रिकोणाकार जो योनिस्थान है, उस योनीके ऐन मध्य भागमें सुषुम्नाका मुख है, वही मुखड़ी ब्रह्माजीका मुख है, वहीं ही वेदमाता गायत्री हैं, ऐसा दर्शनमें आता है । वह सब ही कायिक वाचिक मानसिक कर्मसे “उत्पन्न हैं अर्थात् क्रियपदके भीतर शरीर मन-वाक्य द्वारा क्रिया जिस जिस प्रकारसे अनुष्ठान किया जाय, उन सबसे ही वो सब नाना प्रकारके यज्ञ उत्पन्न होते हैं;-कर्मातीत निष्क्रिय-पद, जहां आत्मा का स्वरूप प्रकाश है, उस स्थानमें इन सबका प्रकाश नहीं। क्रियाके अनुष्ठानसे स्थिर धारणामें इस तत्त्वको जान लेनेसे ही मुक्तिलाभ होता और संसारबन्धनमें पड़ने नहीं होता ॥ ३२ ॥ श्रेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । सवं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥ अन्वयः। हे परन्तप ! द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञानयज्ञः श्रेयान् ; ( यतः ) पार्थ ! सर्व अखिलं कर्म ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥ अनुवाद। परन्तप ! द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेयः है; क्योंकि हे पार्थ! सर्व प्रकार कर्मही ज्ञानमें परिसमाप्त होता है ।। ३३ ।।। व्याख्या। द्रव्ययज्ञ और ज्ञानयज्ञका अर्थ पहिले २८ श्लोककी व्याख्यामें देखो। उससे देखा जाता है कि सर्व प्रकार कर्म ही क्रम अनुसार क्षीणसे क्षीणतम होते हुये अन्तमें आकरके ज्ञानमें परिणत होता है। ज्ञान ही कर्मों की परिसमाप्ति है । ज्ञानका उदय होनेसे सर्व-कम-विमुक्ति होती है। इसी कारणसे द्रव्ययज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है ॥ ३३ ॥ ___ * दर्शन श्रवण जो कुछ जहाँके सब भ्र मध्य कूठस्थमें लक्ष्य स्थिर होनेसेही होता है। इस कारणसे ही भ्रमध्यमें प्राण स्थिर करनेके लिये गुरु महाराज आज्ञा करते है। इस आज्ञाके लिये ही भ्र मध्यके चकका नाम आज्ञाचक्र है ।। ३२ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy