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________________ २२० श्रीमद्भगवद्गीता कल्मष वा चंचलता रूप मैला सब दूर होता है, चित्त विशुद्ध होता है, और उसमें विषयका छाप नहीं पड़ता। तत्पश्चात् यज्ञ पूर्ण होके समाधिमें परिसमाप्त होनेसे, ज्ञानरूप जो अमृतका उदय होता है, उससे हृदयको परिपूर्ण करनेसे और मृत्यु होती नहीं; सबही "मैं" मय हो जानेसे अनन्त ब्रह्मत्वकी प्राप्ति होती है * ॥३०॥ नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥ अन्वयः। हे कुरुसत्तम! अयज्ञस्य ( यज्ञानुष्ठानरहितस्य ) अयं लोकः न अस्ति, ( विशिष्टसाधनसाध्यः ) अन्यः कुतः ? ।। ३१ ।। अनुवाद । हे कुरुसत्तम ! यज्ञहीन लोगों के लिये इहलोक ही नहीं है, दूसरे । लोक केसे रहेगा? ॥ ३१ ॥ व्याख्या। जो सब लोग भक्ति श्रद्धाके साथ इष्ट-देवताओंकी अाराधना द्वारा आत्मानुसन्धान नहीं करते, उनका अन्तर दुःख करके परिपूर्ण अर्थात् उनके अन्तराकाश अंधियारासे ढका रहता है, इसलिये उन सबको आत्मज्योतिका दर्शन नहीं होता; चित्तका मैला भी नष्ट नहीं होता; इस कारण करके वह लोग संसारके स्वरूप न जान करके अनित्य-असत्यको नित्य-सत्य बोध करके मोहित होके रहते हैं; आत्मज्योतिके सहारासे सत्य ज्ञान लाभ करके, संसारके शोक-मोहके भीतर रह करके भी जो शान्ति मिलती है, वह उन * साधक लोग नित्य क्रियायोग करके समाधिसे जो ब्रह्मत्व भोग करते हैं अथवा एकासन में बैठके २०७३६ दफे चातुर्थिक प्राणायाम करने से जो कुम्भक होता है, उसमें भी ब्रह्मत्वलाभ होता है, परन्तु वह सनातन नहीं, उसका भंग है और क्रमान्वयसे बसे भंग-समाधिके अभ्याससे सिद्ध होनेके पश्चात् जीवन्मुक्तावस्था प्राप्त होनेसे सनातन ब्रह्मत्वलाभ होता है। फिर प्राण-प्रयाण कालमें शुक्लागति ( देवयान ) प्राप्ति होनेसे भी, सनातन ब्रह्मत्व लाभ होता है ॥ ३० ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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