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________________ २१० श्रीमद्भगवद्रीता ... व्याख्या। जो पण्डित हैं, उनका कर्मफल में आसक्ति त्याग हो जानेसे वह नित्यानन्दमें परितृप्त रहते हैं, उनका और दूसरा कुछ ही आश्रय रहता नहीं। इसलिये इस असंग अवस्थामें "शरीरयात्रार्थ" वा "लोकसंग्रहार्थ" कम में प्रवृत्त रहनेसे भी, “यत्र यत्र मनो याति तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते" होनेसे, उनकी एक आत्मामें ही स्थिति होती है; इसलिये कम में रहनेसे भी उनकी अकर्म भोग होता है ॥ २० ॥ . निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ २१ ॥ अन्वयः। (स.) निराशो ( निष्कामः ) यतचित्तात्मा (शमदमसम्पन्नः) त्यक्तसर्वपरिग्रहः ( सर्वत्यागी सन् ) शारीरं केवलं कर्म कुर्वन् किल्विषं (संसारबन्धं) न प्राप्नोति ॥ २१॥ अनुवाद । वह निष्काम, संयमी और सर्वत्यागी होके केवल मात्र शरीरयात्रा निर्वाहोपयोगी कभ करके पापमें लिप्त नहीं होते ॥२१॥ व्याख्या । जब मनमें काम और संकल्प नहीं रहता, तब शरीर में आपही आप जिस प्रकार क्रिया होती रहती है, वही "शारीर केवलं कर्म" है। केवलकर्ममें मात्र शरीर निर्वाह ही होता है, कोई उद्देश्य नहीं रहता। मन निष्काम संयत और त्यागी होनेसे कत्तृत्वाभिमान नहीं रहता, इसलिये शरीरादिसे चेष्टा करनेसे भी पाप (चंचलता) में अर्थात् संसार-बन्धनमें पड़ना नहीं होता। साधक ! अपने क्रियाकी परावस्थाकी परावस्थामें विषय-मिलनके ठीक पूर्वकाल पर्यन्त समयको स्मरण करो॥२१॥ यहच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२ ॥ अन्धयः। (सः) यहच्छालाभसन्तुष्टः द्वन्द्वातीतः (आत्मपर-शोतोष्ण-सुखदुःखेत्यादि-भेदज्ञानरहितः समदर्शीत्यर्थः ) विमत्सर ( निवरबुद्धिः) सिद्धौ असिद्धो च समः ( हर्षविषादरहितः) (कर्म ) कृत्वा अपि न निबध्यते ॥ २२ ।।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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