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________________ चतुर्थ अध्याय २०१ सद्गुरूपदिष्ट क्रियाके अनुष्ठान करके द्विज होके वैश्य-क्षत्रिय-ब्राह्मणवर्ण-क्रमसे साधन-मार्गकी चरम सीमामें आना पड़ता है, नहीं तो किसीमें कुछ होता नहीं। इसलिये शास्त्रमें वर्ण भेद करके अधिकारी भेदका विधान है। ब्रह्मवल एक विभूति अर्थात् श्रेष्ठतम शक्तिविशेष है; इसलिये ब्राह्मण न होनेसे किसीसे ही सो शक्ति लाभ होती नहीं। किन्तु परागति वा मुक्ति शक्ति नहीं है, अवस्थाविशेष है; इसीलिये इसमें अधिकारी भेद नहीं। भक्तिपूर्वक इष्ट मन्त्रका अवलम्बन करके जो कोई आत्मानुसन्धानकी चेष्टा करेगा वही, ब्राह्मण-क्षत्रियकी बात क्या "स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा:"-स्त्री, वैश्य और शूद्र जो वर्ण और जो जाति हो, कोई चिन्ता नहीं, परित्राण अर्थात् कैवल्य-शान्ति पावेगा। साधन मार्गमें गुरूपदिष्ट विधान क्रमसे एकमात्र मानुषलोक ही उन सबका आश्रयस्थल है । वो जो तीन गुणके कर्मविभागके अनुसार चार वर्ण हुआ है, वह "मैं' की ही क्रिया है। क्योंकि “मैं” और “मैत्व" ये दो पृथक भावापन्न ( धोखा ) होनेसे भी जैसे पृथकता नहीं, विशुद्ध चैतन्य और अविशुद्ध चैतन्य भी तैसे दृश्यतः पृथक् होनेसे भी वस्तुतः पृथक नहीं है। चैतन्य नित्य, शुद्ध, बुद्ध तथा अकर्ता होनेसे भी उनका जो 'तत्-त्व' अर्थात् माया हैं, उनसे ही उन्होंने अविशुद्ध होके क्रम अनुसार स्थूलसे स्थूलतम विश्व-साज सजके प्रकटित हुये हैं, और मिश्र तीन गुणके चार वर्ग बनाये हैं ॥ १३ ॥ न मा कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ १४ ॥ अन्वयः। कर्माणि मां न लिम्पन्ति, ( यतः ) कर्मफले मे स्पृहा न (अस्ति); इति ( एवं ) मा यो जानाति सः कर्मभिः न बध्यते ॥ १४ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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