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________________ चतुर्थ अध्याय १६५ जिह्वाको उलट करके, दांतमें दांत दबा रखके, भूमध्यमें प्राणको प्रवेश करानेके पश्चात् जो अवस्थान है, वही तप है। इस ज्ञान और तपासे ही चित्तशुद्धि होता है। इस प्रकारसे शुद्धचित्त हुये हैं ऐसे लोग, एक जन नहीं, दो जन नहीं, बहुत ही जना 'मैं' के दिव्य जन्म कर्म को जानके अनुराग विहीन, भयविहीन, क्रोधविहीन 'मैं' मय होकरके एकमात्र 'मैं' कोही अर्थात् कूटस्थचैतन्य अभीष्ट देव परमात्माको आश्रय स्वरूप पाके अपनेमें अपने विलयसे, चिरस्थिर हो गये। साधक ! आज जो तुमही केवल इस रास्ताके राही हो, ऐसा नहों; बहुत ही हो चुके, होके परागति पा चुके, भय क्या ? ॥ १०॥ ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम आनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ ११ ॥ अन्वयः। हे पार्थ । ये ( जनाः) मां यथा ( येन भावेन निष्कामतया सकाम-) तया वा ) प्रपद्यन्ते ( भजन्ति ), अहं तान् (जनान् ) तथा एव (तेन भावेन एव भजामि, यतः मनुष्याः सर्वशः ( सर्वप्रकारैः ) मम वर्त्म (मार्गे ) अनुवर्तन्ते ॥११॥ अनुवाद। हे पार्थ । मुझको जो जो जिस जिस भाव में भजना करता है, मैं उन सबको उसी उसी भावसे ही भजना करता रहता हूँ। क्योंकि, मनुष्य लोग सर्व प्रकारसे हमारे ही पथका अनुर्वत्तन करते है ॥ ११॥ व्याख्या। बहुत लोग मद्भाव प्राप्त हुये हैं सही, किन्तु उन सबका ही मूल है विश्वास, क्योंकि,-"यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति ताशी"-अर्थात् जिसके मनके भाव जैसे हैं, उसको उसी प्रकारकी सिद्धिलाभ होती है। साधक साधनामें अपनेको मुक्त बन्ध लिप्तनिलिप्त, सकाम-निष्काम, एक-बहु प्रभृति जिस भावमें सजावेंगे, साधन फल करके उनकी आत्मा भी उसी भावसे सज करके उनको ग्रहण करेंगे, अर्थात् वह उसी प्रकार अवस्थाको पावेंगे। इसका कारण
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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