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________________ १६० श्रीमद्भगवद्गीता योगानुष्ठान द्वारा अन्तर्मुख-वृत्ति लेके खडा होनेसे, इस धर्ममें ग्लानि अर्थात् अवसन्नता वा हानि उपस्थित होता है, और अधर्मके अर्थात् अवलम्बन-विहीनताके अभ्युत्थान (अभि = निकट + उत् = ऊर्द्ध+स्था = स्थिति ) अर्थात् निकट ऊर्द्ध में वा ठीक ऊपर में स्थिति होती है। देखा जाता है-पहले ही मनः क्षेत्र वा मनोमय कोष हैं; यहां चिन्तनादि चार वृत्ति अर्थात् धर्मके चार पाद पूर्णमात्रामें क्रियाशील हैं, इसलिये मन ही सत्य वा सत्ययुग ( सत्य - सत् = जो है+य= सम्पूर्ण अस्तित्व जिसमें ) है। बहिविषयसे विहीन होके मन इस मनःक्षेत्रमें प्रवेश करनेसे, साधक देखने पाते हैं कि--उनके इष्टदेव नरसिंह रूप धरके, उनके हिरण्यकशिपु रूप* वैरीभावको नष्ट करते हैं । तत् पश्चात् मनःक्षेत्र पार होनेसे ही बुद्धिक्षेत्रमें वा विज्ञानमय कोषमें आना पड़ता है, तब मनोवृत्ति ग्लानियुक्त वा म्लान हो जाता है; जिसलिये मनोवृत्ति न रहनेसे बुद्धि क्षेत्रमें उतना परिमाण निरालम्बन वा अधर्मका उत्थान होता है, तीनही मात्र वृत्ति वा धम्मपाद रह जाता है; अर्थात् तीन पाद धर्म और एक पाद अधर्म होता है ; इसलिये बुद्धि ही त्रेता वा त्रेतायुग है। इस विज्ञानमय त्रेतामें साधक दर्शन करते हैं कि इष्टदेव राम रूपसे साधकके रावण रूप चांचल्यभाव ( काम-भोगेच्छा ) को नष्ट करते हैं। उसके बाद बुद्धिक्षेत्र अतिक्रम होनेसे ही अहंक्षेत्र वा आनन्दमय कोष है; यहां बुद्धिवृत्ति न रहनेसे फिर उतना परिमाण निरालम्बन वा अधर्मका उत्थान होता है, तब केवल मात्र अहंकत्तत्व और चिन्तन ये दो वृत्ति वा धर्मपाद वर्तमान रहता है, अर्थात् दो पाद धर्म और दो पाद अधर्म होता है; इसलिये अहंकारक्षेत्र ही द्वापर युग है । इस आनन्दमय द्वापरमें अभीष्टदेव श्रीकृष्ण रूपसे आविर्भूत हो के साधकके दन्तबक्र-शिशुपाल रूप आत्मीय भाव अर्थात् अहंत्व नष्ट करते हैं। * १०म अः ३० श्लोककी व्याख्या देखो ॥ ७॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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