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________________ १८८ श्रीमद्भगवद्गीता मानस-नेत्र उन्मीलन करके देखते हैं -एक "मैं" ही सर्वत्र वर्तमान“मैं” के और आने जानेके जगह नहीं, इसीलिये “मैं” के जनम नहीं; जनम न रहनेसे, “मैं” के मरण भी नहीं, इसीलिये “मैं” अव्ययात्मा अर्थात् अक्षयस्वभाव,-क्षयोदय जो सो चित्तादि चौबीस तत्त्व वा भूत सकलके लिये; ये चित्तादि भूत सकल “मैं” में ही अवस्थितमें ही इन सबके अस्तित्व, अतएव “मैं” ही इन सबके ईश्वर अर्थात् अस्तित्व-प्रतिपादक हूं, तब जो “मैं” भिन्न भिन्न रूपसे प्रकाशित होते हैं, आत्म-माया ही उसके कारण, और स्व प्रकृति ही इसके उपकरण हैं; चतन्यसत्वा चित् , चित्त, अहंकार, बुद्धि, मन प्रभृति नाना क्षेत्रमें सवतोव्यापी रहनेसे जिस क्षेत्रमें जैसे रहते हैं, माया सहयोगसे उस क्षेत्रमें वैसे ही मूर्ति धर लेते हैं, इसीलिये उनके मनोमय चित्तमय, चिन्मय नाना प्रकार रूपके आविर्भाव होती है; ये सब ही स्व प्रकृति है। योगवाशिष्ठमें है-"जिनके प्रभावसे निश्चेष्ट ब्रह्मकी चेष्टा सम्पन्न तथा जीवका चैतन्य समुत्पादित होवे, उसका नाम चित् है । चित् अव्यक्त है”। यह अव्यक्त चित् ही माया है। माया पहले अलीनावस्थासे विकाश प्राप्त होयके पश्चात् विकार द्वारा जड़त्व ग्रहण करके चतुर्विंशति तत्त्वामिका प्रकृतिमें परिणता होती है । इस प्रकृतिमें चैतन्य-ज्योति पड़नेसे, माया द्वारा क्षेत्र भेद करके वह नाना रूपसे प्रतिफलित होती है। सृष्टिमुखमें आवरणके क्रमिक विकाशसे एक चैतन्य ही जैसे बहुत्वमें परिणत होता है, लयमुसमें भी वैसे विपरीत क्रममें आवरणके क्षय होनेसे उनका बहुत्व नष्ट होता है; उसी समय साधक विभिन्न प्रावरणमें भिन्न भिन्न अवतार-मूर्ति देखते देखते. अनन्तमें मिलके ब्रह्मत्व लाभ करते हैं ॥६॥ .
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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