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________________ १८६ श्रीमद्भगवद्गीता इन्होंने अहंकार-सम्पन्न कह करके असर्वज्ञ ( स्वल्पज्ञ ); ईश्वर अहंकार विहीन कहके सर्वज्ञ हैं। इन जीव और ईश्वरके ठीक बीचमें (चित्त के बाहर तरफ जिस प्रकार स्थानमें विवस्वान है, भीतर तरफ ठीक उसी प्रकार स्थानमें ) एकठो अनति-उज्ज्वल मण्डल प्रकाश पाता है; इसीको चन्द्र-मण्डल कहा जाता है। उस चन्द्र-मण्डल भेद करनेके बाद कूट प्रकाश पाता है, कूट भेद करनेसे ईश्वर, ईश्वरके लय होनेके पश्चात् विवस्वान् , पश्वात् अव्यक्तके बार पुरुष; इस प्रकार ही साधना के क्रम जानो)। (४र्थ और ५म चित्र देखो)। पूर्वोक्त प्रकार विविध प्रावरण भेदसे ही "अहं' अर्थात् शिवचैतन्य तथा "त्व" अर्थात् जीव चैतन्यका बहुजन्म कल्पना हुआ है। चैतन्यसत्त्वा जो विविध आवरण करके विविध भावमें प्रकाशित है, सो शिव-भावके निकट ही प्रत्यक्ष होता है, जीव-भावके निकट होता नहीं; क्योंकि साधक जबतक जीव-चैतन्यमें रहते हैं, तबतक उनका विषय-विकृत मैं-भाव रहता है, पश्चात् जब शिव-चैतन्यमें उठ जाते हैं, तब उनका मैं-भाव विशुद्ध होता है, विकृत मैं-भावमें होता नहीं। इसलिये कहा हुआ है, "अहं वेद त्व न वेत्थ” । श्रीगुरुदेव इस श्लोकमें साधकको दोठो शब्दमें सम्बोधन करके सुन्दर रूपसे साधकका इस समयका अवस्था लक्ष्य कराय दिये हैं, एकठो शब्द अर्जुन, दूसरा शब्द परन्तप है। चित्तके सर्वत्र विकशित; (२) क्षत्रिय-जिसके चेतनाशक्ति मन, बुद्धि और अहंकार इन तीन क्षेत्रमें विकशित; (३) वैश्य-जिसके चेतनाशक्ति मन और बुद्धि इन दो क्षेत्र में विकशित है; और (४) शूद्र-- जिसके चेतनाशक्ति केवल मात्र मनमें विकशित। अन्तःकरणके इन चार क्षेत्रके गठन के सौष्ठव तथा प्रतिफलन-शक्तिके उत्कर्षक तारतम्य अनुसार करके इन चार श्रेणोके मनुष्य, फिर उत्तम, मध्यम और अधम तीन प्रकारके है॥५॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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