SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८३ चतुर्थ अध्याय रहस्य कहा गया है अर्थात् यह गुप्त-साधारणके बोधसे मंपा है। जिन पुरुषके मनके आवरण खुले हैं, वही भाग्यवान इसको जान लिये-जान लिये कि, यही पुरातन-यही उत्तम है, क्योंकि इसीसे ऊंचे वाले तमः अर्थात् ब्रह्मरन्ध्रमें केवल्य-स्थिति की प्राप्ति होती है॥३॥ अजुन उवाच। अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद् विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४॥ अन्धयः। अर्जुन: उवाच । भवतः जन्म अपरं ( परवत्ति इत्यर्थः । विवस्वतः जन्म परं ( प्राककालीनं ), ( तस्मात् ) त्वं आदौ ( योगं) प्रोक्तवान् इति एतत् कथं ( अहं) विजानीयाम् ? ॥ ४॥ अनुवाद । अर्जुनने कहा। सूर्य का जन्म पूर्व में और तुम्हारा जन्म उसके पश्चात् हुमा है; यह योग तुमने पहले सूर्यसे कहा था, उसे मैं कसे जानू? ॥४॥ व्याख्या। क्रियाकालमें साधक देखने पाते हैं कि, चिदाकाशमें प्रथम एक अनुपम ज्योतिर्मण्डल खिल उठता है, पश्चात् उस मण्डलके भीतरसे कल्पनातीत एक सुन्दर मनोहर बिन्दु क्रमविकाशसे भूवनमोहन इष्टमूर्ति धारण करते हैं। वह ज्योतिर्मण्डल ही विवस्वान् है, और वह इष्ट मूर्ति ही कूटस्थब्रह्म श्रीगुरुदेव हैं। अतएव देखते हैं, विवस्वानका आविर्भाव पहले और कूटस्थ चैतन्यका आविर्भाव पश्चात् होता है। इसलिये शुद्ध चतन्यका ज्योति ( ज्ञानस्रोत ) पहले ही विवस्वान्में आ पड़ता है, पश्चात् उससे कूटस्थ-चैतन्यमें संचारित होता है। साधक इस प्रकार प्रत्यक्ष करते हैं, किन्तु श्रुतिसे जानते हैं दूसरे प्रकार; इसलिये सन्देह उपस्थित होनेसे, आत्मजिज्ञासामें अनु सन्धान करते हैं कि कूटस्थसे विवस्वान्में आत्मज्योतिका संचार होता -- है, वह कैसे? ॥४॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy