SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय १८१ क्षय नहीं, क्रमशः अनन्त ब्रह्ममें मिलके अनन्त होता है, इसलिये यह अव्यय है। प्रवृत्ति-निवृत्ति, वासना-विराग भेद करके काल दो अंशमें विभक्त है। ब्रह्ममुखी निवृत्तिमार्गमें कालखोत क्रमशः क्षीणसे क्षीणतम हो आनेसे, कालका महत्त्व रहता नहों, सूक्ष्मत्व अम्ता है; संसारमुखी प्रवृत्तिमार्गमें ही काल महत् है, क्योंकि प्रवृत्तिसे ही कालस्रोत अधिकतर प्रबल होता है । इसलिये संसारको भी महत् कहा है। इसी अर्थसे ही द्वितीय अध्याय ४० श्लोकमें "महतो भयात्” कहा गया है। और भी, वैराग्य करके मनका मयला दूर होनेसे आत्मचैतन्य वा ज्ञानका विकाश होता है, और वासनासे मनमें विषयका मयला पड़ने से ज्ञानका विनाश होता है। लोक-जगतमें यह योग रूप आत्मज्ञान सृष्टिमुखी वासना वृत्तिसे ही नष्ट हुआ है अर्थात् ढका पड़ा है * इसलिये यह बात सब कोई जान नहीं सकते ॥ १॥२॥ स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्य तदुत्तमम् ॥३॥ अन्वयः। ( ) मे ( मम ) भक्तः सखा च असि, इति ( हेतोः ) अयं सः पुरातनः योग: ते ( तुभ्यं ) एव अद्य ( कुरुक्षेत्रयुद्धस्य प्रथमदिवसे ) मया प्रोक्तः, हि ( यतः ) एतत् उत्तमं रहस्यं ॥ ३ ॥ अनुवाद। तुम मेरे भक्त तथा सखा हो; इसलिये पुराना योग आज तुमसे मैंने कहा, क्योंकि यह उत्तम रहस्य हैं ॥ ३ ॥ व्याख्या। आज साधक कर्मयोग अवलम्बनसे सविचार-समाधि लाभ करके उसी योगरूप आत्मज्ञानको प्रत्यक्ष और श्रतिगोचर करते * व्याधि, आघात, और मानसिक आवेग करके मस्तिष्क विकृत होनेसे जसे स्मृति लोप पाता है, वैसे ही विषय-वासना तथा असंयम (वा सम्भोग ) से बुद्धिवृत्ति बिकृत होनेसे आत्मज्ञान लोप पाता है ॥१॥२॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy