SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थोऽध्यायः श्रीभगवानुवाच । इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥१॥.. एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवानुवाच । इमं अव्ययं ( अक्षयं ) योग अहं विवस्वते ( सवितारं ) प्रोक्तवान् , विवस्वान् मनवे प्राह, मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत्। एवं परम्पराप्राप्त इमं ( योगं ) राजर्षयः विदुः ; हे परन्तप ! सः योगः महता कालेन ( कालवशात् ) इह ( लोके ) नष्टः (विच्छिन्नः ) ॥ १॥२॥ - अनुवाद। श्री भगवान कहते हैं। इस अव्यय योग मैंने विवस्वानसे कहा था विवस्वानने मनुसे तथा मनुने इक्ष्वाकु को कहा था। इस प्रकार परम्पराप्राप्त उस योगको राजऋषिगणने जान लिया था। हे परन्तप ! वह योग पश्चात् महत् कालके वशमें इस लोकसे नष्ट हो गया ॥ १॥२॥ व्याख्या। द्वितीय तृतीय अध्यायमें सांख्ययोग और कर्मयोग की वर्गना किया गया उसी दोनोंको निर्देश करके इस श्लोकमें "इमं योग" कहके व्यक्त किया गया। सांख्ययोग है अनुमानसिद्ध ज्ञान, और कर्मयोग है अनुष्ठानसिद्ध ज्ञान। केवल अनुमान (ज्ञान ) से कार्य नहीं होता, केवल अनुष्ठान (कर्म) से भी काम नहीं होता, इन दोनोंका (ज्ञान-कर्मका) समावेश (योग) चाहिये; इसलिये अनुमान और अनुष्ठान एक होनेसे जो ज्ञान होता है, वही यह ज्ञानयोग - द्वितीय तृतीय अध्यायका (सांख्य-कर्मका) समष्टि ज्ञान है। इस श्लोकका योग शब्दके अर्थ में ज्ञान वा ज्ञानयोग समझना
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy