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________________ १६५ तृतीय अध्याय अनुवाद। सु-अनुष्ठित पर धर्मसे विगुण स्वधर्म श्रेयस्कर है। स्वधर्ममें निधन ( मरना ) श्रेयः, परधम्मको भयावह जानो ॥ ३५ ।। ब्याख्या । शरीरमें "मैं”-वाचक पदार्थ जो है, वही "स्वं", और 'मेरा'-वाचक जो है वही “पर” है । 'मैं' कहनेसे श्रात्माको समझा जाता है, इसलिये आत्मा "स्व" । मेरा कहनेसे त्रिगुणमय चतुर्विंशति तत्त्वको समझा जाता है, इस कारण करके वह सबही “पर” है। आत्मा किस प्रकार ? *-'सच्चिदानन्दस्वरूपः" है। तीन कालमें जो समान रहते हैं, वही 'सत्', ज्ञान स्वरूप 'चित्' और सुखस्वरूप 'आनन्द' हैं। चौबीस तत्त्व किस प्रकार है ?--अर्थात् "असन्मयः, तामसः नित्यं विकारवान्” अर्थात् असत्य, परिणामी, अज्ञानतामय, और सतत विकारशील है। जो जैसा है, उसीकी वह अवस्था ही उसका धर्म है। अतएव स्वधर्म कहनेसे समझाता है कि-नित्यस्थायी ज्ञानमय सुखावस्था। परधर्म कहनेसे समझाता है कि-परिवर्तनशील अज्ञान अवस्था। ___ तीन गुणके साम्यावस्थामें निष्क्रियताके लिये आत्मधर्म, विगुण (वि= विगत, गुण ) है; और तीन गुणकी विषमतामें सर्वकर्म सम्पन्न होते रहनेसे परधर्म सु-अनुष्ठित है। साम्यही संसारमोचन है, वैषम्यही संसार-बन्धन है; इसीलिये विगुण स्वधर्म सुअनुष्ठित पर धर्मसे श्रेयः है। (निरन्तर निस्त्रैगुण्य अवस्थामें रह सकते नहीं इस करके, निस्वैगुण्य अवस्थामें रहनेके लिये साधना अभ्यासका कष्ट सहना भी अच्छा है, तथापि प्राकृतिक धर्म प्रवाहमें शरीर डाल करके अज्ञानताको सुख मानके मुर्दा सरिस बहते चला जाना अच्छा नहीं)। शरीर धारण करनेसे ही शरीर त्याग वा निधन (मृत्यु) अनिवार्य है। वह निधन प्रात्मधर्ममें रह करके होनेसे सच्चिदानन्द अवस्था ___* “आत्मा शुद्ध स्वयंज्योतिरविकारी निराकृतिः ॥ ३५ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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