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________________ तृतीय अध्याय १५६ . व्याख्या। जो कृत्स्न ( ब्रह्माण्ड ) को जानते हैं, वह कृत्स्नवित्ईश्वर ( कूटस्थ चैतन्य ) हैं, और अकृत्स्नवित्-जीव * हैं। जो जीव मन्द अर्थात् अलस-उद्यम विहीन है, वह अगर देहाभिमानी हो करके शब्दस्पर्शादि विषय-भोगमें रत हो, तो ईश्वर उसकी विचालना नहीं करता, अर्थात् "मृत्युसंसारसागरात् समुद्धर्ता" ईश्वर-कूटस्थपुरुष-उसे टालता नहीं, चिज्योतिके विकाशसे भीतरका अधियारा दूर कराके पथ देखा नहीं देते; वह अपनेको चालना करके चलते चलते विषय के भीतर चक्कर खाता रहता है ** ॥ २६ ॥ मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीनिर्ममोभूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३०॥ अन्वयः। मयि सर्वाणि कम्माणि संन्यस्य अध्यात्मचेतसा निराशी निर्ममः भूत्वा विगतज्वरः ( सन् ) युद्धस्थ ॥ ३० ॥ अनुवाद। मेरे ऊपर सर्व कर्भ अर्पण करके, आत्मामें मन रखके आशाममता शून्य होके शोक त्याग पूर्वक युद्ध करो ॥ ३० ॥ * अविद्याके वश करके जो आत्मविस्मृत है, जो इस शरीरके अध्यक्ष है, जो प्राणसमूहके धारयिता हैं, जो चेतन नाम पा करके भी स्वल्पज्ञ हैं वही पुरुष जीव हैं ॥ २९ ॥ ** जब तक कत्त त्व रहता है, ईश्वरमें आत्मसमर्पण न हो, तब तक ईश्वर बोम ठाते नहीं; जब आत्मसमर्पण हो गये, तत्क्षणात् प्रभु भार ले लेते हैं। दृष्टान्त है कि कुरुसभा स्थलमें वस्त्र हरण समयमें द्रौपदी जबतक बस्त्र पकड़ रख करके श्रीकृष्ण महाराज को बोलाती थी, तबतक कृष्णजी उपस्थित नहीं हुथे; जिस वक्त उसने वस्त्र छोड़ देकरके ऊद्ध बाहु हो करके श्रीकृष्णमें सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया, उसी वक्त श्रीकृष्णने अन्तरीक्षमें दर्शन दे के बस्त्ररूपी हो करके उसकी ( द्रौपदीर्की ) रक्षा की थी॥ २९॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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