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________________ तृतीय अध्याय १४३ (कर्मक्षेत्र), और मणिपुरसे आज्ञापर्यन्त सत्व अर्थात् स्थिर प्रकाश (धर्म) अधिक कह करके इसको 'धर्मक्षेत्र' कहा जा सकता है। इसलिये मणिपुरके नीचे कमकी प्रधानता हेतु कार्यविस्तार, और ऊपरमें धमकी प्रधानता हेतु मूलकारणमें कार्यका लय लक्ष्य करा दिया गया है ॥ १४ ॥ १५॥ एवं प्रवर्तितं चकं नानुवर्त्तयतीह यः। अधायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! यः इह एवं प्रवत्तितं चक्रं न अनुवर्त यति (न अनुतिष्ठति) सः अघायुः ( पापजीवनः ) इन्द्रियारामः ( इन्द्रियपरायणः ) मोघं (व्यर्थ ) जीवति ॥ १६ ॥ अनुवाद। हे पार्थ! जो यहां इस प्रकार प्रवत्तित चक्रका अनुवर्तन नहीं करता है, वह अधायु, इन्द्रियाराम-तथा वृथाजीवनधारी होता है ॥ १६ ॥ व्याख्या। यह जो चक्र प्रवर्तित हुआ है-प्रथम आज्ञा, द्वितीय विशुद्ध, तृतीय अनाहत, चतुर्थ मणिपुर, पञ्चम स्वाधिष्ठान, तथा षष्ठ मूलाधार-इन सबके पिछाड़ीवाला पहलेसे उत्पन्न है । चैतन्य भी वैसे पहलेसे दूसरे में उतर आते आते सर्बशेष मूलाधार से निकल बाहर अाके भूत सज लिये हैं । उसको सत् सत्त्वामें पुनश्च पहुँचाना हो तो जिस रास्ताको धर कर उतर आकरके भूत साज लिये थे, . उसी रास्ता धर करकेही (उल्टी गतिमें) फिरना पड़ेगा, अर्थात् उनको पहले मूलाधारमें प्रवेश करके वहांसे स्वाधिष्ठान, पश्चात् स्वाधिष्ठानसे मणिपुर में, ऐसे करते करते आज्ञामें आना पड़ेगा। इस उल्टा गतिका नाम अनुवर्तन है । यह अनुवर्तन जो न करेगा, वह "अघायु" है अर्थात् उसको विषयके भीतर रह करके चंचलताके पालोड़नमें * सहस्त्रार रजोविहीन क्षेत्र है, वही क्रियाविहान कवल स्थिर प्रकाश वर्तमान है। सृष्टि-मखमें आज्ञासे ही प्रथम रजोका विकाश होता है, इसालये आज्ञा प्रथम है।॥ १६ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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