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________________ १३२ . श्रीमद्भगवद्गीता मन ही मनमें स्थिर रख करके गुरूपदिष्ट प्रकरण से प्राणचालन द्वारा कर्म करने से थोड़ासा बादही युक्त होना पड़ता है। पश्चात् उसी भावसे बैठ रह करके दोनों हाथ की अंगुलियोंसे गुरूपदिष्ट नियम मता चक्षु, कर्ण, नासिका, और मुखद्वार रोध करनेसे "परमं पुरुषं दिव्यं याति” अर्थात् परम पुरुषका दर्शन होता है, जिनको हिरण्मय पुरुष कह करके उपनिषत् में * वर्णना किया है वही पुरुष परागति हैं। जो प्राणायाम द्वारा चित्तशुद्धि कर लेकरके अनासक्त हो के कर्मदिन्योंके सहारेसे नवद्वार रोध करके इस परम-पुरुषार्थसाधनमें यत्न करते हैं ( कर्म योगका अनुष्ठान करते हैं ) वही पुरुष युक्त है, वही पुरुष विशिष्ट है ॥७॥ नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायोमकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मण : ॥८॥ अन्वयः। त्वं नियतं कर्म कु, हि ( यतः ) कर्म अकर्मणः ( अपेक्षायाः) ज्यायः (श्रेष्ठः); च ( अधिक किम् ) अकर्मणः ( कर्महीनस्य ) ते शरीरयात्रा अपि न प्रसिध्येत् ( न भवेत् ) ॥ ८॥. अनुवाद। तुम नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म अकम्मंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है, अधिक क्या, कर्म न करनेसे तुम्हारा शरीर-यात्रा भी निर्वाह न होवेगा ॥८॥ व्याख्या। कम्मी (योगी) न हो करके त्यागी साज लेनेसे जो अकर्म होता है, उसमें रहनेसे, इन्द्रिय सकल पूर्वसंचित कर्मफलके अनुसार विषयमें आबद्ध रहता है कह करके परमपद-प्राप्ति नहीं होतीः किन्तु गुरूपदिष्ट मतामें कर्म करनेसे, उसके अवश्यम्भावी * छान्दोग्य उपनिषद प्रथम प्रपाठकके षष्ठ खण्डमें षष्ठ श्लोक देखो-"अय यदेवं तदादित्यस्य शुक्लं भाः संव साथन्नीलं परः कृष्णं तदमस्तत् सामाथ यः एषोऽन्तरादित्य हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते, हिरण्यश्मश्रु हिरण्यकेशः आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः” । .॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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