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________________ तृतीय अध्याय - १२६ कर्म है। इस कर्म के शेष ही में नैष्कर्म्य प्राप्ति है, और क्रमशेष के मिलन का नामही "कर्मयोग” है। साधक ! तुम देखो, मूलाधार के भीतर ब्रह्मनाड़ीमें जब तुमने भूतशुद्धि करना प्रारम्भ किया है, तष संवात विलयमें (क्रिया गुरूपदेश करके बोधगम्य) तुमको कितनी चंचलता भोग करना पड़ी। जब तुमने आज्ञाचक्र भेद करके निष्क्रिय गुरूपदको लक्ष्य किया, तब ही तुम्हारी निष्कामता का प्रारम्भ हुआ। क्रम करके जितना तुम गुरुपदमें प्रवेश करने चले, उतनाही तुम्हारा चंचलता नीचेके उस श्राज्ञा-चक्रमें दूरसे दूरान्तरमें पड़ते रह गये; और तुम्हारी निष्कामता बढ़ती चली। जब तुम गुरुपदमें, मिल गये, तुम्हारा वो जो प्राण-चालन रूप कर्म था जो तुम पहले से करते चले आते थे, सो एकवारगी तुमसे छूट गया; तुम भी वो नैष्कर्मय सिद्धि पा गये । यदि तुम चित्तपथमें (ब्रह्माकाशमें) पहलेसे प्राणचालन . का अनुष्ठान न करते, तो तुमको बाहर के पांच विषयोंमें लिपट कर डूबना तरना पड़ता; कभी इस स्थिर शान्तिका सुख भोग करने नहीं पाते। और भी देखो, सुषुम्ना मार्गमें प्राणचालन शिक्षाके पहले तुमने स्वभावज निश्वास प्रश्वाससे बहिविषय त्याग ग्रहणमें जो समस्त वासना-राशिकी छापा चित्त पटमें लगाये थे, उन समस्त छापाके (पूर्वसंचित कर्म ) रहने से भी, कर्म शेष न करके यदि तुम कर्म त्याग करते (संन्यासी साज लेते) तो सिद्धि रूप ज्ञाननिष्ठाकी अवस्था ' ( ब्राह्मी विश्राम ) तुम न पाते। इसलिये श्री भगवान कहते हैं किपुरुष यदि कर्म का अनुष्ठान न करे, तो वह नष्कमय-अवस्था पाता नहीं, अथवा कर्मत्याग करके हेतुशून्य संन्यासी होने से भी सिद्धि लाभ करने नहीं सकते ॥ ४॥ .. न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते हबशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै : ॥५॥ अन्वयः। अकर्मकृत् कश्चित् न जातु ( कदाचित् ) क्षणमपि तिष्ठति; हि (यतः) प्रकृतिजैः गुणैः सर्वः अवशः ( सन् ) कर्म कार्य्यते ॥५॥ -8
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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