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________________ तृतीय अध्याय १२७ और बुद्धिक (ज्ञान) भीतर कीन श्रेयस्कर ( मुक्ति देनेवाला) है, संसीको निश्चय कर लेते हैं ॥२॥ . - श्री भगवानुवाच । लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥ अन्वयः। श्री भगवान् उवाच । हे अनघ ! अस्मिन् लोके निष्ठा द्विविधा मया पुरा प्रोक्ता-ज्ञानयोगेन सांख्यानां (निष्ठा ), कर्मयोगेन योगिना (निष्ठा) ॥३॥ अनुवाद। श्री भगवान कहते हैं, हे अनघ ! पहले ही मैं कह चुका, इस लोकमें निष्ठा दो प्रकार की है, ज्ञान योगसे सांख्य मतवाले लोगोंकी निष्ठा और कर्म योगसे योगिगण की निष्ठा है ।३॥ व्याख्या। भक्ति श्रद्धा पूर्वक जो निश्चय स्थिति, अर्थात् जिस प्रकार स्थिर भाव आनेसे शरीर बेखबर हो जा करके अन्तःकरण अन्तर्मुख करके "विन्दुनादकलातोत" होता है उसका नाम निष्ठा (नि: =. निःशेष, ष्ठा= स्थिति अर्थात् जिस स्थितिकी अवधि नहीं.) है। इस • शरीर रूप जगतमें वही निष्ठा दो प्रकारके हैं, पहला जो मनुष्य सांख्य अर्थात् ज्ञानी है ; वह सब ज्ञान योग से और दूसरा, जो सब योगी हैं अर्थात् कम्मी वह लोग कर्म योगसे वो निष्ठा लाम करते हैं। इस शरीर में प्राणही चालक-शक्ति और मन चैतन्य शक्ति है उसी प्राणमें मन देनेका नाम कर्मयोग है, और मनमें मन देनेका नाम है ज्ञानयोग । सद् रुके उपदेशसे सुषुम्ना मार्गके छः चक्रमें श्रात्ममन्त्र विन्यास करनेसे ही प्राणमें मन देना होता है, और आज्ञा चक्रके ऊपरमें सहस्रार स्थितिपद लक्ष्य करके "श्रवण-मनननिदिष्हासन" से तत्त्व निर्णय करते रहनेसे ही मनमें मन देना होता है मम्त्रविन्यासका फल है निरालम्व हो करके ब्रह्मावकाशमें मिल
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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