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________________ ११० श्रीमद्भगवद्गीता भूत और भविष्यत्का व्यवच्छेद नहीं रहता। साधक तब अपरिणामी सत् सत्वामें परिणत होकर सदा वर्तमान होते हैं। जीवके "छोटा मैं" "महान्” मैं में मिलने से एक बिना दो नहीं रहता; इसलिये समझना और समझाना भी नहीं रहता; सर्व विषयमें वेद शून्य अवस्था पाती है ॥५२॥ अतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥५३॥ अन्वयः। यदा ते अतिविपतिपन्ना ( श्रतिभिः प्रणवनादः विशेषेण प्रतिपन्ना निश्चिता ) बुद्धिः समाधौ निश्चला अचला स्थास्यति तदा योगं अवाप्स्यसि ॥५३॥ अनुवाद। जब तुम्हारी बुद्धि श्रुति द्वारा विप्रतिपन्न, निश्चल तथा अचल हो कर समाधिमें स्थिर होगा, तब ही तुम योगको प्राप्त हो जायोगे ॥ ५३॥ व्याख्या। अच्छिन्न अनाहत नादके भीतर मन देनेसे, और चित्तके उसमें मुग्ध हो जानेसे, बोध-शक्ति और दूसरे किसीको धारण नहीं करती, केवल उसी नाद मध्य-गत प्रस्फुटित ज्योतिमें आकृष्ट हो रहती है। इस अवस्थामें बोधशक्ति "श्रुतिविप्रतिपन्ना" होकर अर्थात् प्रणवध्वनि सुनते सुनते निश्चयात्मिका होकर "निश्चल” होती है, अर्थात् एक विन्दुसे दूसरे विदु में गमन नहीं करती; पश्चात् ब्रह्ममें समाहित होकर "अचल" अर्थात् स्थिर होती है, अर्थात् बोधशक्तिकी और कोई क्रिया नहीं रहती; ( साधक ) सर्व प्रकार स्पन्दन रहित हो जाता है;-स्पन्दन रहित अवस्था ही योगावस्था है। तथाच उत्तरगीतायां : "अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः । ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्योतेरन्तर्गतं मनः। तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदं" ॥५३॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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