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________________ . द्वितीय अध्याय १०१ महेश्वर-मुखसे निरन्तर नाद-लहरीयुक्त वेदादि-मन्त्र उच्चारण होता है; वेदादि-मन्त्रसे ही प्राज्ञा-मूलाधार-व्यापिनी गायत्री-सावित्रीसरस्वती-रूपिणी वेदमाता उत्पन्ना,-रजो द्वारा सर्वत्र उत्-चारिता,तथा प्रकाशमय विशाल सत्त्वके भीतर अवस्थिता है। इसीलिये यही "महेशवदनोत्पन्ना विष्णोहृदयसम्भवा ब्रह्मणा समनुज्ञाता" हैं। आज्ञासे मूलाधार पर्यन्त क्रिय-पदके भीतर यही देवी तीन रूपसे प्रकाशिता तथा सम्पुटित त्रिपाद मन्त्रसे उच्चारिता होती हैं; इसोलिये इनको त्रिपदा कहा जाता है। इनका और एक पाद है, वह चतुर्थ पाद निष्क्रियपदं सहस्रारमें अवस्थित है। ब्राह्मण उपनयन समयमें जो गायत्रो-मन्त्र शिक्षा करते हैं, वह त्रिपदा है;-संन्यास कालमें जो मन्त्र सीखना पड़ता है, वही गायत्रीका चतुर्थ पाद है। चतुर्थ पादमें संन्यासियोंको ही अधिकार है, कन्मीको नहीं; क्योंकि कूटस्थ भेद करके सहस्रारमें न पहुँचनेसे इन्हें पहचाना नहीं जा सकता। कूटस्थ भेद करके श्राज्ञा पार होनेसे ही रजः मिट जाने पर रजःप्रभाव भी धीरे-धीरे मिट जाता है, प्राणक्रिया जैसे ही शेष होता है, वैसे ही निष्किय-पद सहस्रार विकशित होता है, तब स्थिर-प्रकाश ज्ञानज्योति खिल उठतो है;—उस ज्योतिके प्रभावसे अतीत, अनागत, वर्तमान विषय-व्यापार प्रत्यक्ष होता रहता है। इस समयमें जगज्जननी त्रिनयना आद्याशक्ति प्रसन्न हो करके कभी पुरुष, कभी प्रकृति रूप धरके, साधकके भ्रमात्मक द्वतमय मायाजालको छिन्न करके भेदज्ञानका अपनयन करती है, सचतुर्थपाद गायत्री उच्चारिता होती है । ये सब उत्तर दिशामें सुनाई देता है )। उस चतुर्थपादसे सन्यास होता है, अर्थात् शब्द-विन्यास एक प्रणवमें ही परिसमाप्त . हो करके लहरी-विहीन एक-तान (अकम्पन) अनाहत नादका उत्थान होता है; इस नादके भीतरसे एक ज्योतिर्मय विन्दु खिल बाहर
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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