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________________ श्रीमद्भगवद्गीता करके वाणीमें प्रकाश किया है (उच्यते )। अतएव आत्माको इस प्रकार जान करके शोक करना तुम्हारे लिये उपयुक्त नहीं ॥ २५ ॥ अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् । तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि ॥२६।। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र वं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्य ऽर्थ न त्वं शोचितुमर्हनि ॥२७॥ अन्वयः । अथ ( यद्यपि ) च एनं ( आत्मानं ) नित्यजातं नित्यं मृतं वा मन्यसे, तथापि हे महाबाहो। त्वं एनं शोचितुन अर्हसि, हि ( यस्मात् ) जातस्य मृत्युः ध्रुवः (निश्चितः) मृतस्य च जन्मधु वं, तस्मात् अपरिहार्य ( अवश्यम्भाविनि) अर्थे त्वं शोचितुं न अर्हसि ॥ २६ ॥ २७ ॥ अनुवाद। और यदि इनको (आत्माको ) नित्यजात वा नित्यमृत मनमें मानलो तो हे महाबाहो! ऐसा होनेसे भी तुम इनके लिये शोक कर नहीं सकते; क्योंकि जिसने जन्म लिया है उसका मरण अवश्य है तथा मरनेसे भी जन्म लेना अवधारित है। अतएव इस अपरिहार्य विषयके लिये शोक करना तुम्हारे लिये सचित नहीं ॥ २६ ॥ २७ ॥ व्याख्या । अपना साधनलब्ध निजबोधरूप ज्ञान छोड़ करके भी यदि तुम सांसारिक नियमको ले इनको (आत्माको ) नित्यजात एवं नित्यमृत मनमें निश्चय कर लो, तो ऐसा होनेसे भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं; क्योंकि जन्म लेनेसे ही मरना होता है, फिर मरनेसे ही जन्म लेना पड़ता है। यह एक बिल्कुल ही सच्ची बात है। जन्म और मरण क्या है ?-चैतन्यके नाम-रूपका आवरण ग्रहण करनेका नाम जन्म, और आवरण विहीन होनेका नाम मुक्ति है, फिर पल्टा आवरण लेनेके लिये असावधान हो करके शेष निश्वास त्याग करनेका नाम मरण है। आवरणको ही शरीर कहते हैं। वह शरीर तीन प्रकारके हैं-स्थूल, सूक्ष्म, और कारण । पंचीकृत-पंचमहाभूत J . ...
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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