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________________ श्रीमद्भगवद्गीता वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥ अन्वयः। यथा नरः जीर्णानि वासांसि विहाय अपराणि नवानि गृह्णाति, तथा देही जीर्णानि शरीराणि विहाय अन्यानि नवानि संयाति ॥ २२ ॥ अनुवाद। मनुष्य जैसे जीर्ण वस्त्रको परित्याग करके दूसरे नवीन वस्त्रको 'ग्रहण करते हैं, आत्मा भी वैसे ही जीर्ण शरीरको परित्याग कर दूसरे नवीन शरीरको ग्रहण करता है ॥ २२ ॥ व्याख्या। संसारमें जो जन्म मरण देखनेमें आता है, वह केवल पुराना कपड़ा छोड़ कर दूसरा नवीन वस्त्र पहिननेके सदृश आवरण परिवर्तन मात्र है, पुराने अपटु देहको छोड़ करके, जीव दूसरी एक नवीन पटु देहको प्रहण करता है ॥ २२ ॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । च चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥ अन्वयः। शस्त्रानि एनं ( आत्मानं ) न छिन्दन्ति, पावकः (अग्निः ) एनं न दहति, आपः ( जलं) एनं न च क्लेदयन्ति, मारुतः (एनं ) न शोषयति। अयम् (आत्मा) अच्छेयः, अयम् अदाह्यः, अक्लेद्यः, अशोष्यः एव च; अयम् नित्यः, सर्वगतः, स्थाणुः ( स्थिरस्वभावः रूपान्तरापत्तिशून्यः ), अचलः (पूर्वरूपापरित्यागी), सनातनः (अनादिः ) ॥ २३ ॥ २४ ॥ अनुवाद। इस आत्माको शस्त्र समूह छेदन कर नहीं सकता, अग्नि इनको दहन कर नहीं सकती, जल इनको भिगो नहीं सकता, वायु इनका शोषण कर नहीं सकता, इसी कारण यह ( आत्मा ) अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, तथा अशोष्य है, आत्मा
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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