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________________ द्वितीय अध्याय पड़ते अर्थात् जाग्रत-स्वप्नमें जो सर्वदा आत्म-चतन्यमें रहते हैं, वह पुरुष ही गुड़ाकेश हैं। और जो आसन सिद्ध हुये हैं, अर्थात् शिरा-प्रशिराका पथ क्रूर वायु-पित्त-कफ करके श्रावद्ध रहनेके लिये पहले पहले श्रासन-कालमें घुटना, कटि, पीठ, पीठके रीढ़ आदि स्थानोंके दर्द करनेसे जैसा विघ्न उत्पन्न होता था, दृढ़ अभ्याससे वह सब कष्ट नष्ट करके अनायास स्थिरासनमें जो बहुत देर तक रह सकते हैं, किसी प्रकार कायरताका अनुभव नहीं करते; वरंच आसन करके बैठनेसे लम्बे-पड़ने वाला-श्राराम सरिस आरामका अनुभव करते हैं, एक बातमें कहनेसे कहना होता है कि प्राकृतिक सैन्यका कोई भी जिनका उद्यम भंग नहीं कर सकता, वही पुरुष परन्तप हैं ॥४॥ तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदंवचः ॥ १० ॥ अन्वयः। हे भारत ! हृषीकेशः प्रहसन् इव (प्रसन्नमुखः सन् ) उभयोः सेनयो मध्ये विषीदन्तं ( विषादग्रस्तं ) तं (अर्जुनं ) इदं वचः उवाच ॥ १० ॥ अनुवाद। हे भारत । हृषोकेशने हंसते हुये दोनों सेनाके ठीक बीचमें स्थित विवादग्रस्त अर्जुनसे ये बात कही ॥१०॥ व्याख्या। हृदयमें उस प्रकार तुष्णीम्भाब पाने से ही हृषीकेश प्रहसन होते हैं, अर्थात् स्निग्धोज्ज्वल बिजलीकी छटासे अन्तराकाश ज्योतिर्मय हो पड़ता है, चित्त पुलक करके भर जाता है। (वह , ज्योति-वह आनन्द भाषामें व्यक्त हो नहीं सकती, जो भाग्यवान् साधक ६।७ श्लोकके अनुसार कत्तत्त्वाभिमान परित्याग करके अन्ध शिष्य बनके उस तुष्णीम्भाव अवस्थामें आ सकते हैं, वही समझते हैं )। किन्तु दो अंशमें विभक्त प्रत्यक्ष वृत्ति समूहके मध्यभागमें मन अपनेमें आप रहनेसे, विषयविवज्जित विषण्ण-भाव रह जाता है, तब
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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