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________________ एकादशः सर्गः ३३ रेव मृगः, ऋतुमृगः । विद्रुतश्चासौ क्रतुमृगः, विद्रुतक्रतुमृगस्तस्य अनुसारी तं विद्रुतक्रतुमृगानुसारिणम् । हिन्दी-दशरथ जी के पुत्र राम ने, सोये हुए अजगर के समान भयंकर ( दीखने वाले ) उस धनुष को देखकर उठा लिया। जिस धनुष से शिवजी ने, मृग रूपधारी आगे-आगे भागते हुये यज्ञ ( प्रजापति ) देवता का पीछा करने वाले बाण को छोड़ा था। विशेष-एक समय ब्रह्माजी ( दश प्रजापतियों में एक ) संध्या नाम की अति सुंदरी अपनी कन्या को देख कर, उसपर मोहित हो गये थे। तब यह पिता होकर भी मुझ से रमण करना चाहता है। इस कारण शरम के मारे सन्ध्या ने हरिणी का रूप धारण कर लिया। यह देख ब्रह्मा भी मृग बनकर रमण करने को तैयार हो गये थे। यह सब देखकर भगवान् शंकर ने अपने पिनाक नामक धनुष को तानकर एक बाण छोड़ दिया। इससे ब्रह्मा ने लज्जित एवं पीड़ित होकर मृगशिरा नामक नक्षत्र का रूप धारण कर लिया, और तुरन्त शिवजी का बाण भी आर्द्रा नक्षत्र बनकर मृगशिरा के पीछे आकाश में खड़ा हो गया। तभी से आर्द्रा और मृगशिरा नक्षत्र का सदा सान्निध्य रहता है। अर्थात् मृगशिरा का पीछा आज भी आर्द्रा ( शिवबाण ) नहीं छोड़ रहा है। ऐसी पुराण को कथा प्रसिद्ध है ॥ ४४ ॥ आततज्यमकरोत्स संसदा विस्मयस्तिमितनेत्रमीक्षितः । शैलसारमपि नातियत्नतः पुष्पचापमिव पेशलं स्मरः ॥ ४५ ॥ स रामः संसदा सभया विस्मयेन स्तिमिते नेत्रे यस्मिन्कर्मणि तद्यथा स्यात्तथेक्षितः सन् । शैलस्येव सारो यस्य तच्छैलसारमपि धनुः। स्मरः पेशलं कोमलं पुष्पचापमिव नातियत्नतो नातियत्नात् । नञर्थस्य नशब्दस्य सुप्सुपेति समासः। आततज्यमधिज्यमकरोत् ।। ___ अन्वयः-सः संसदा विस्मयस्तिस्मितनेत्रं यथा स्यात्तथा ईक्षितः सन् शैलसारम् अपि "धनु:" रमरः पेशलं पुष्पचापम् इव नातियत्नतः आततज्यम् अकरोत् ।। व्याख्या-सः =रामः संसीदन्ति जनाः अस्यां सा संसद् तया संसदा= सभया "सभासमितिसंसदः” इत्यमरः, विस्मयेन =आश्चर्येण स्तिमिते = निश्चले नेत्रे = नयने यस्मिन् कर्मणि तत् यथा स्यात्तथा ईक्षितः = दृष्टः सन् , प्रचुराः शिलाः सन्त्यत्र सः, शैलः । शैलस्य = पर्वतस्य इव सारः = बलं दाढयमित्यर्थः । यस्य स तं शैलसारम् अपि तद्धनुः, स्मरः= कन्दर्पः पेशलं = कोमलं पुष्पं चापमिति पुष्पचापं = कुसुमधनु : इव = यथा नातियत्नतः = नातिप्रयासेन आतता = विस्तारिता, आरोपिता ज्या = मौर्यो यस्य तत् आततज्यम् = आरोपितमौर्वीकमित्यर्थः । अकरोत् = कृतवान् । ___ समासः–विस्मयेन स्तिमिते नेत्रे यस्मिन् कर्मणि तत् विस्मयस्तिमितनेत्रम् , शैलस्य इव सारो यस्य तत् , शैलसारम् । पुष्पं च तत् चापमिति पुष्पचापम् । आतता ज्या यस्मिन् तत् आततज्यम् । हिन्दी-सभा में बैठे सभी लोगों से आश्चर्य चकित होकर विना आँख झपकाए ( एकटक से ) देखे गये उस शिशु राम ने, पर्वत के समान भारी एवं कठोर भी उस शिव
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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