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________________ २९ एकादशः सर्गः ( झुकने ) वाले अपने कठोर धनुष को विचार कर कन्या के मूल्य की स्थिति मर्यादा से दुःखी हुवे। विशेष—एक दिन शिवजी के धनुष को जो कि जनकजो के घर में रखा था, सीता जो ने उठाकर दूसरे स्थान पर रख दिया था, क्योंकि उसे कोई उठा नहीं सकता था, अतः जनक जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, और तभी जनकजी ने प्रतिज्ञा की थी कि जो इस धनुष को उठाकर इसकी डोरो को चढ़ा देगा, उसी के साथ सीताजी का विवाह करूँगा। इस प्रतिज्ञा के कारण उन्हें पछतावा हो रहा था। क्योंकि ऐसे कठोर धनुष को ये बालक क्या तोड़ेगा। और लड़का सब तरह से सीताजी के योग्य है। यही पश्चात्ताप का कारण है ॥ ३८ ॥ अब्रवीच भगवन्मतङ्गजैर्यबृहद्भिरपि कर्म दुष्करम् । तत्र नाहमनुमन्तुमुत्सहे मोघवृत्ति कलभस्य चेष्टितम् ॥ ३९ ॥ अब्रवीच्च। मुनिमिति शेषः। किमिति । हे भगवन्मुने, बृह द्भिर्मतङ्गजैर्महागजैरपि दुष्कर यत्कर्म तत्र कर्मणि कलभस्य बालगजस्य। 'कलभः करिशावकः' इत्यमरः। मोघवृत्ति व्यर्थव्यापारं चेष्टितं साहसमनुमन्तुमहं नोत्सहे ॥ अन्वयः-हे भगवन् ! बृहद्भिः मतंगजैः अपि दुष्करं यत्कर्म तत्र कलभस्य मोघवृत्ति चेष्टितम् अनुमन्तुम् अहं न उत्सहे, इति जनकः मुनिम् अब्रवीत् च। व्याख्या--भगं = महात्म्यमस्यास्तीति भगवान् तत्संबुद्धौ हे भगवन् ! हे मुने ! बृहद्भिः = विशालैः "बृहद् विशालं पृथुलं महत्" इत्यमरः। मतंगात् = ऋषेः जाताः मतंगजास्तैः मतंगजैः = गजैः “मतंगजो गजो नागः कुञ्जरो वारणः करी" इत्यमरः । अपि दुष्करं = कर्तुमशक्यम् यत् कर्म = कार्यम् , तत्र=कर्मणि कलभस्य = करिशावकस्य "कलभः करिशावकः” इत्यमरः । मुह्यन्त्यस्यां सा मोघा = निरर्थका वृत्तिः = व्यापारो यस्य तत् मोघवृत्ति, “मोघं निरर्थकम्" इत्यमरः । चेष्टितं =साहसम् अनुमन्तुम् = अनुज्ञातुं नोत्सहे । इति = इत्थं जनकः मुनिम् अब्रवीत् = अकथयत् । समासः-मतंगात् जाताः मतंगजास्तैः मतंगजैः । मोघा वृत्तिः यस्य तत् मोघवृत्ति, तत् । हिन्दी-और तब राजा जनक ने विश्वामित्रजी से कहा कि हे भगवन् बड़े-बड़े उन्मत्त हाथी भी जो काम नहीं कर सकते, उस कार्य में हाथी के बच्चे की व्यर्थ व्यापार वाली चेष्टा ( उत्साह ) का मैं समर्थन नहीं कर सकता हूँ। विशेष-प्रियदर्शन नामक गन्धों के राजा के लड़के प्रियंवद ने अभिमान में आकर मतंग नामक ऋषि का अपमान कर दिया था, तभी ऋषि ने उसे शाप दिया कि तुम हाथी हो जाओ, अतः मतंग से उत्पन्न मतंगज हुआ ॥ ३९ ॥ हृपिता हि बहवो नरेश्वरास्तेन तात धनुषा धनुभृतः । ज्यानिघातकठिनत्वचो भुजान्स्वान्विधूय धिगिति प्रतस्थिरे ॥ ४० ॥ हे तात, तेन धनुषा बहवो धनु तो नरेश्वरा हेपिता हियं प्रापिता हि । जिहतेर्धातोर्य
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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