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________________ २५ एकादशः सर्गः गौतम को पत्नी अहल्या इन्द्र की क्षणभर के लिये पत्नी बन गई थी । स्त्रीपने को प्राप्त हो गई थी ॥ ३३ ॥ प्रत्यपद्यत चिराय यत्पुनश्चारु गौतमवधूः शिलामयी । स्वं वपुः स किल किल्बिषच्छिदां रामपादरजसामनुग्रहः ॥ ३४ ॥ शिलामयी भर्तृशापाच्छिलात्वं प्राप्ता गौतमवधूरहल्या चारु वं वपुश्चिराय पुनः प्रत्यपद्यत प्राप्तवती यत् । स किल्बिषच्छिदां पापहारिणाम् । 'पापं किल्बिषकल्मषम्' इत्यमरः । रामपादरजसामनुग्रहः किल प्रसादः किलेति श्रूयते ॥ अन्वयः-शिलामयी गौतमवधूः चारु स्वं वपुः चिराय पुनः प्रत्यपद्यत, सः किल्बिषच्छिदां रामपादरजसाम् अनुग्रहः किल। ___ व्याख्या-शिलायाः विकारः, शिलामयी = पाषाणमयी स्वभर्तृगौतमशापाच्छिलात्वं प्राप्ता गौतमस्य =महर्षेः वधूः = पली, गौतमवधूः अहल्या चारु = अतिसुन्दरं स्वं = निजं वपुः = शरीरं चिराय = बहुकालं पुनः = भूयः श्रीरामपादस्पर्शानन्तरमित्यर्थः, प्रत्यपद्यत =प्राप्तवती, "इति यत्" सः, केलयति = क्रीडयति विषयेषु यत् तत् किल्बिषम् । किल्बिषं = पापं छिन्दन्ति = नाशयन्तीति किल्बिषच्छिदस्तेषां किल्बिषच्छिदां = पापापहारिणाम् “पापं किल्बिषकल्मषम्" इत्यमरः । रामस्य = दशरथपुत्रस्य, विष्णोरवतारविशेषस्येत्यर्थः, पादौ = चरणौ तयोः रजांसि =धूलयस्तेषां रामपादरजसाम् अनुग्रहः = प्रसादः किलेति श्रूयते । “प्रसादोऽनुग्रहस्वास्थ्यप्रसत्तिषु । काव्यगुणे" इति हैमः । समासः—गौतमस्य वधूः, गौतमवधूः। किल्बिषाणि छिन्दन्तीति किल्बिषच्छिदस्तेषां किल्बिच्छिदाम्। रामस्य पादौ रामपादौ तयोः रजांसि इति रामपादरजांसि तेषां रामपादरजसाम् । हिन्दी-“अपने पति" महर्षि गौतम के शाप से पत्थर की गई हुई अहल्या ने अपने सुन्दर शरीर को बहुत समय के पश्चात् जो फिर से प्राप्त कर लिया था, यह सब, पापों को हरनेवाले श्रीरामजी की चरण धूली का ही प्रसाद ( कृपा ) था। विशेष-अहल्या महर्षि गौतम की पत्नी थी। रामायण के अनुसार अहल्या सबसे पहली महिला थी, जिसे ब्रह्मा ने पैदा किया था, और गौतम ऋषि को दे दिया, देवराज इन्द्र ने गौतम का रूपधारण करके उसे सत्पथ से फुसलाया, इस प्रकार उसे धोखा दिया। दूसरी कथा के अनुसार अहल्या इन्द्र को जानती थी, किन्तु इन्द्र प्रेम तथा नम्रता के वशीभूत होकर वह इन्द्र की चाटुकारिता का शिकार बन गई थी। इसके अतिरिक्त एक और कथानुसार-इन्द्र ने अहल्या के रूप में मोहित होकर चन्द्रमा की सहायता प्राप्त की। चन्द्र ने मुर्गा बनकर आधी रात्रि में ही वाँग दे दी। इस बाँग से महर्षि स्नान ध्यान के लिये नदी पर चले गये, इधर इन्द्र गौतम के रूप में उनके स्थान में प्रविष्ट हो गये। जब महर्षि को ज्ञात हुआ तो उन्होंने अहल्या को आश्रम से निकाल दिया और शाप दे दिया कि पत्थर की बन जाओ। इस दशा में तब तक पड़ी रहो जब तक दशरथ के पुत्र राम के चरण का स्पर्श
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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