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________________ त्रयोदशसर्ग का कथासार १७ मृदङ्ग की ध्वनि इस विमान के ऊपरी मंजिल के कमरों में गूंज रही है। ये पञ्चाग्नि तापते हुए मुनि नाम से सुतीक्ष्ण होने पर भी चरित्र से सौम्य हैं। इन्द्र द्वारा भेजी गई अप्सराओं की कामुक चेष्टाएँ इनको वश में न कर पाईं। इनका एक हाथ तो सदा ऊपर उठा रहता है, दूसरे को भी मेरे सम्मान के लिए ऊपर उठा रहे हैं। मौनी होने से मेरे प्रणाम को थोड़ा सिर हिलाकर स्वीकार कर ले रहे हैं और विमान के आगे बढ़ने पर पुनः सूर्य की ओर दृष्टि कर लिये हैं। यह शरभङ्ग मुनि का प्राश्रम है जिसने दीर्घकाल तक अग्निहोत्र करके अपनी देह को भी उसी में हवन कर दिया। यह उद्धत सांड-जैसा चित्रकूट या गया। यह दूर से पतली-सी दीखती हुई स्वच्छ जलवाली मन्दाकिनी है। यह पहाड़ के पास का वह तमाल है जिसके पल्लव मैं तुम्हारे कानों में खोसा करता था। यह अत्रिमुनि का प्राश्रम आ गया जहाँ अनसूया ने अपने प्रभाव से ऋषियों के स्नान के निमित्त गंगा प्रवाहित कर दी थी। चबूतरों पर खड़े यहाँ के वृक्ष वीरासन में समाधिस्थ योगियों-जैसे दीख रहे हैं। यह वटवृक्ष या गया जिससे तुमने अखण्ड सौभाग्य की याचना की थी। हे सीते ! देखो यमुना की नीली तरङ्गों से मिश्रित प्रवाहवाली यह गङ्गा कहीं पर नीलमों के साथ गुथे मोतियों के हार-सी, कहीं इन्दीवरों से गुथे श्वेत कमलों की माला-सी, कहीं नीले हँसों से युक्त सफेद हंसों की पंक्ति-सी, कहीं पर काले अगुरु से दिये अल्पनावाले भूमि के भाग-जैसी, कहीं छायारूप में लीन अन्धकार से मिश्रित चाँदनीजैसी, और कहीं काले सर्प से लिपटी भस्मच्छरित शिव की देह-जैसी लग रही है। गंगा-यमुना के इस संगम पर मरनेवालों की तत्त्वज्ञान के बिना भी मुक्ति हो जाती है। यह निषादराज का शृंगवेरपुर पा गया जहाँ मेरे राजसी वेश उतारकर जटा धारण करने पर सुमन्त रो पड़ा था। बुद्धि से अव्यक्त की तरह मानससरोवर से निकलती हई जो अयोध्या के समीप बहती है, जिसके किनारे सैंकड़ों यज्ञ-स्तूप हमारे पूर्वजों ने गाड़े हैं, जिसने इक्ष्वाकुवंशी राजाओं को धाय की तरह पाला है वही सरयू नदी महाराज दशरथ से वियुक्त हुई मेरी माता की तरह तरङ्गरूप हाथों से मुझे बुला रही है। यह सायंकाल की लालिमा को धूसर करती हुई-सी पृथ्वी की धूल उड़ रही है। मालूम पड़ता है हनुमान् से सूचना पाकर सेना-सहित भरत मेरी अगवानी करने आ रहा है। निश्चय ही जैसे राक्षसों को मारकर लक्ष्मण ने तुमको मुझे सौंप दिया, ऐसे ही आज तक पालन की हुई राजलक्ष्मी को यह मुझे लौटा देगा। आगे-आगे मुरु को और पीछे सेना को करके वृद्ध मन्त्रियों के साथ वल्कल-वस्त्रधारी भरत पूजा
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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