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________________ त्रयोदशसर्ग का कथासार लङ्का से चलने के बाद भगवान राम ने पुष्पकविमान से आकाश में जाते हुए नीचे समुद्र को देखकर एकान्त में सीता से कहा-हे वैदेहि ! देखो मेरे बनाये हुए पुल से यह समुद्र दो भागों में ऐसे विभक्त हो गया है जैसे आकाशगङ्गा से शरद्कालीन स्वच्छ आकाश। अपने पिता सगर के अश्वमेधीयाश्व को खोजते हुए हमारे पूर्वजों ने खोदकर इसे बड़ा बनाया। इससे जल लेकर सूर्य-किरणें अपने में धारण करती हैं; इसमें रत्न बढ़ते हैं; जलभक्षी बड़वानल को यह धारण करता है। विष्णु की तरह इसके रूप को भी, ऐसा ही है या इतना ही है, नहीं कहा जा सकता। प्रलय-काल में सारे संसार को उदरस्थ करके आदिपुरुष इसी पर सोते हैं। इन्द्र द्वारा पंख काटे जाने के डर से पर्वत इसी की शरण आते हैं। आदिवाराह पृथ्वी को लेकर जब इससे बाहर निकले तो इसका उछलता जल पृथ्वी का चूंघट-सा दीखता था। चतुर नागरिक द्वारा पत्नी के अधरपान की भांति यह कितनी ही नदियों का जलपान करता है। बड़े-बड़े तिमिमत्स्य छोटी मछलियों-सहित इसके जल को मुख में भरकर जब मुख बन्द करते हैं तो उनके सिर के छेद से फुहार सी निकलती है। जलगजों के कपोलों पर लगा फेन चँवर-सा दीखता है। हवा लेने के लिये किनारे पर आये हुए भीषण सर्प लहरों से भिन्न तब पहिचाने जाते हैं जब सूर्य किरणों से उनकी मणियाँ अधिक चमकती हैं। विद्रुमों के ऊपर लहरों से फेंके हुए शंख पड़ जा रहे हैं जिससे वे तुम्हारे अधरों की बराबरी कर नहीं पा रहे हैं। जल लेने के लिए आया हुआ मेघ जब इसके भौंर में फंस जा रहा है तो प्रतीत होता है मंदराचल इसे पुनः मथ रहा है । दूर सेतमाल और ताल वृक्षों से नीली किनारे की भूमि घूमते हुए चक्र के बीच लगे धब्बे की रेखा-सी दिखाई दे रही है। यह केतकी-पराग से युक्त तट की वायु तुम्हारे मुख को सम्मानित करने लगी है। अब हम शीघ्र ही किनारे पर आ गए हैं जहाँ बालू पर सीपियों के फूटने से मोती बिखरे पड़े हैं और चारों ओर सुपारी के पेड़ फलों से लदे हैं। हे मृगनयनी! पीछे की ओर थोड़ा देखो। वेग से विमान ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहा है त्योंत्यों पीछे की भूमि समुद्र से निकलती-सी प्रतीत हो रही है। मेरी इच्छा के अनुकूल हमारा विमान कभी स्वर्ग में, कभी अन्तरिक्ष में और कभी भू पर चल रहा है। यह
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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