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________________ रघुवंशमहाकाव्य के शवों को परास्त कर दिया; सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राह्मणों को दान में दे दी; अन्त में परमपुरुष आपसे हार जाना भी मेरे लिए कल्याणकारक ही है। मेरी गति को नष्ट न करें ताकि मैं पुण्यतीर्थों का भ्रमण कर सकू; मेरे यज्ञादि से अजित पुण्य-फलों को ही नष्ट कर दें क्योंकि उनका फल स्वर्ग होगा जहां के सुख-भोगों की अब मुझे आकांक्षा नहीं रही। ____राम ने मुनि की आज्ञानुसार बाण को पूर्व की ओर छोड़कर उनका स्वर्गद्वार बन्द कर दिया और धनुष को एक ओर रखकर क्षमा करें' कहते हुए मुनि के चरणों में गिर पड़े। शत्रु को जीतकर नम्र हो जाना ही वीरों का यश बड़ाता है। तब परशुराम राम-लक्ष्मण से बोले-माता से प्राप्त राजसत्व की अवहेलना कर पिता से प्राप्त सात्त्विकता का मुझे बोध हो गया है; तुम्हारा यह दण्ड देना भी मेरेलिए अनुग्रह के समान है; तुम्हारा कल्याण हो; अब मैं जा रहा हूं; अतः तुम भी अपने देवकार्य (जिसके लिए अवतार लिये हो) में लगो। इतना कहकर मुनि अन्तर्धान हो गये। उनके चले जाने पर विजयी राम को गले लगाते हुए दशरथ को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे राम का पुनर्जन्म हुआ हो। कुछ दिनों की सुखमय यात्रा के बाद वे सजी हुई अयोध्या में प्रविष्ट हुए ।
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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