SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 763
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवमः सर्गः ३२५ मात्मविनाशहेतुस्तम् भात्मविनाशहेतुम् शापम्=अनिष्टवचनम् मम्बूना जलाना राशिः समूहः अम्बुराशिः समुद्रः उर्वस्य महर्षेः अपत्यं पुमान् और्वस्तम् पौर्व वडवानलम् इव यथा दधत् धृतवान् सन् वनात् निवृत्तः परावृत्तः। समासः-प्राप्ताः अनुगाः यं स प्राप्तानुगः । पातकेन विलुप्ता धृतिः यस्य स पातकविलुप्तधृतिः । अन्तः निविष्टं पदं येन सोऽन्तर्निविष्टपदः तमन्तर्निविष्टपदम् । प्रात्मनः विनाशः तस्य हेतुस्तमात्मविनाशहेतुम् । अम्बूनां राशिः, अम्बुराशिः। हिन्दी-पहुंच गये हैं सेवक जिसके, ऐसे राजा ने तुरन्त इस मुनि की माज्ञा को पूर्ण कर (अर्थात् चिता बनाकर ) एवं मुनि के वधरूप पातक से हतोत्साह होकर राजा, हृदय में बैठे हुए अपने नाश के कारण मुनिशाप को उसी प्रकार लिये हुए वन से लौट पड़े, जैसे कि समुद्र वड़वाग्नि को धारण किये रहता है ॥२॥ इति श्रीशांकरिधारादत्तशास्त्रिमिश्रविरचितायां "छात्रोपयोगिनी" व्याख्यायां रघुवंशे महाकाव्ये मृगयावर्णनं नाम नवमः सर्गः ॥
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy