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________________ रघुवंशमहाकाव्ये तत् प्रमुदितवरपक्षम् । ते च ते क्षितिपतयश्च क्षितिपतयः, क्षितिपतीनां मण्डलं तत्क्षितिपतिमण्डलम् । अन्यस्मिन्निति अन्यतः। प्रफुल्लानि पद्मानि यस्य तत् प्रफुल्लपद्मम् । कुमुदानां वनम् कुमुदवनं तेन प्रतिपन्ना निद्रा यस्य तत् कुमुदवनप्रतिपन्ननिद्रम् । हिन्दी--स्वयंवर मण्डप में, एक ओर प्रसन्नता से खिले हुए वर पक्ष वाले थे और दूसरी ओर इन्दुमती के न मिलने से मुरझाया हुआ वह राजाओं का झण्ड था। अतः उस समय वह मण्डप ऐसा लग रहा था जैसा प्रातःकाल में वह सरोवर प्रतीत होता है जिसमें एक तरफ तो खिले हुए कमल हैं और दूसरी ओर मुंदा हुआ (बिना खिला) कुमुदों (सफेद कमल रात में खिलनेवाले) का झुण्ड खड़ा हो ॥८६॥ इति श्रीशांकरिधारादत्तशास्त्रिमिश्रविरचितायां 'छात्रोपयोगिनी' व्याख्यायां रघुवंशे महाकाव्ये स्वयंवरवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ।
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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