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________________ सभी प्रजाजन यही समझते थे कि प्रजा में सबसे अधिक महाराज प्रज मुझे ही मानते हैं । और अज ने भी न तो कठोरता ही अपनाई और न अधिक सरलता, किन्तु मध्यम व्यवहार का आश्रय लेकर सभी राजाभों का विनाश न करके अपने अधीन कर लिया। यह सब देखकर रघु ने आश्रम में जाने का विचार किया। इस विचार को सुनकर अज ने अश्रुपूर्ण नेत्र होकर प्रार्थना की कि मुझे छोड़कर अरण्य में माप न जावें । रघु ने भी प्रासू बहाने वाले पुत्र की इच्छा पूर्ण की, किन्तु त्यागी हुई लक्ष्मी को उसी प्रकार स्वीकार नहीं जैसे साँप छोड़ी हुई अपनी केचुल को फिर नहीं धारण करता। ___ इसके अनन्तर रघु की योग समाधि तथा प्रज के राज्य पालन और वर्धन का वर्णन महाकवि ने ११ श्लोकों में बड़ा सुन्दर तथा विवेचनात्मक रूप से किया है। ___ इसके बाद रघु का योगसमाधि से शरीर त्याग तथा प्रज के द्वारा उसका संस्कार आदि का वर्णन है । ___अतः परं सुन्दर बे रोक टोक शासन करते हुए अज को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, उसका नाम दशरथ रखा जाता है। इस प्रकार देव, ऋषि तथा पितृ ऋण से अनृण होकर एक दिन महारानी इन्दुमती के साथ नगर के उपवन में विहार कर रहे थे कि उसी समय दशिणसागर के तट पर स्थित गोकर्ण तीर्थ में शिवजी की सेवा करने आकाश मार्ग से नारद जी जा रहे थे। स्वर्गीय पुष्पों से बनी माला को उनकी वीणा के ऊगर से वायु ने गिरा दिया, और वह माला इन्दुमती के वक्षस्थल पर पाकर गिरी। उसके गिरते ही इन्दुमती के साथ २ ही राजा भी बेहोश होकर गिर पड़ते हैं। सेवकों को चेष्टा से राजा की मूर्छा तो जाती रहती है। किन्तु इन्दुमती न जी सकी। निष्प्राण इन्दुमती को अपनी गोद में रखकर राजा अज, अपनी स्वाभाविक धीरता को त्यागकर विलाप करते रहे । महाकवि ने अज के विलाप का २८ श्लोकों में बड़ा ही मार्मिक करुणापूर्ण चमत्कारिक सुललित सरल वर्णन किया है । जो कि लोकोसर एवं सर्वातिशायी है। इसके बाद किसी प्रकार सचिव वर्ग इन्दुमती के शव को लेकर पग्नि
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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