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________________ पंचमसर्ग का कथासार महर्षि वरतन्तु का शिष्य कौत्स सम्पूर्ण विद्या प्राप्तकर गुरुदक्षिणा देने के लिये धन चाहता हुअा राजा रघु के पास तब पहुँचा जब विश्वजित् यज्ञ में राजा अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दे चुका था। सोने-चांदी के पात्र रह नहीं गये थे । अतः मिट्टी के बर्तनों में स्वागत की सामग्री लेकर यशस्वीराजा ने विद्वान् अतिथि का स्वागत किया और विधिवत् पूजा करके आसन पर बैठाकर विनम्रतापूर्वक मुनि से कहा हे तीक्ष्णबुद्धि मुने! जैसे संसार सूर्य से जीवन प्राप्त करता है ऐसे ही आपने जिनसे समस्त विद्याएँ पाई हैं वे मंत्रद्रष्टा ऋषियों के अग्रणी आपके गुरु कुशलपूर्वक हैं? देवराज इन्द्र के आसन को भी हिला देनेवाली उनकी शारीरिक, वाचिक और मानसिक तपस्या में कोई बाधा तो नहीं आ रही? शीतल छाया द्वारा थकान मिटानेवाले और आलवाल आदि विविध उपायों से सन्तान की तरह पालेपोसे आपके आश्रम के वृक्षों को वायु आदि द्वारा कोई क्षति तो नहीं पहुँचती? यज्ञादि के निमित्त लाये हुए कुशों को खाने पर भी स्नेह के कारण जिन्हें रोका नहीं जाता और मुनियों की गोद में ही जिनका प्रसव हो जाता है वे मगियों के बच्चे तो स्वस्थ हैं ? जिनसे आप नित्य स्नानादि और पितरों का तर्पण करते हैं तथा जिनके किनारों पर बीन-बीन कर इकट्ठे किये अन्न का छठा भाग राजकर के लिये रखा रहता है, वे जलों के घाट तो सुरक्षित हैं ? जिससे आप लोग अपना जीवन निर्वाह करते हुए समय-समय पर आये हुए अतिथियों का भी सत्कार करते हैं उस नीवारादि अन्न को जंगली पशु नष्ट तो नहीं कर रहे हैं ? क्या आपको महर्षि ने प्रसन्नतापूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति दे दी है ? क्योंकि अब आपकी आयु सबका भरणपोषण करनेवाले इस आश्रम में जाने योग्य हो चुकी है। ___ आपके आगमन से मेरी आत्मा तब तक तृप्त नहीं होगी जब तक आपके आदेश की प्रतीक्षा करता हुआ मैं यह न जान लूं कि आपने गुरु जी के आदेश से या स्वयं अपनी इच्छा से मुझे किसलिये कृतार्थ किया।
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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