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________________ द्वितीय सर्ग का कथासार प्रात:काल उठकर मुदक्षिणा के नन्दिनी की पूजा करने और बछड़े के दूध पीने पर राजा दिलीप ने महर्षि वशिष्ठ जी को धेनु को वन में चराने के लिए छोड़ दिया। अपनी परनो तथा सेवकों को लौटाकर छत्र चामरादि राज्य-चिह्नों को छोड़कर अकेले ही गौ की सेवा करने में तत्पर हो गये। स्वादयुक्त हरे-हरे घासों का ग्रास देकर शीतल जल पिकाकर और नन्दिनी के पीछे-पीछे छाया की तरह रहकर सेवा करने लगे। सेवा में लीन राजा के वन में प्रवेश करते ही जंगल के समी उपद्रव शान्त हो गये। सुन्दर हरे-हरे वनों को देखते हुए अपनी मस्त चाल से नन्दिनी तथा राजा तपोवन के मार्ग को सुशोभित करते थे। शाम को गौ के पीछे-पीछे राजा चलते थे और सामने से सुदक्षिणा पूजा के लिए आती थी तो बोच में कपिला धेनु संध्या को तरह दीखती थी। शाम को गौ की पूजा करने के पश्चात् सपत्नीक गुरुजी की वन्दना कर संध्या वंदन से निवृत्त हो राजा पुनः रात्रि में धेनु के पास में ही शयन करते थे। इस प्रकार सेवा करते-करते २१ दिन बीतने पर २२ वें दिन राजा की परीक्षा लेने के लिए नन्दिनी हिमालय की गुफा में घुप्त गई। इधर राजा पर्वत की छटा देखने में तल्लीन थे। इतने ही में गौ की चिल्लाहट सुनकर देखते हैं कि एक सिंह धेनु की पीठ पर बैठ उसे फाड़ने में लगा है। अति कम होकर राजा ने सिंह को मार डालने को इच्छा से एक बाण तरकश से निकालने के लिए हाथ को पीछे किया। किन्तु वह हाथ तरकश में ही चिपक गया और हाथ के बँध जाने से अपने व्यर्थ क्रोध में जलते हुए एवं आश्चर्य में पड़े हुए राजा से सिंह कहने लगा कि हे राजन् ! तुम व्यर्थ परिप्रम मत करो, इस देवदारु की रक्षा करने के लिए शिव जी ने मुझे यहाँ रक्खा है और नो जीव यहाँ आता है वहो मेरा भोजन है । अतः तुमने गुरुमक्ति दिखा दो है, तुम लज्जा को त्यागकर लौट जाओ। यह सुनकर राजा ने सिंह से प्रार्थना की कि वह भगवान् शिव मेरे मी पूज्य हैं और गुरु के धन की मी रक्षा अवश्य करनी है। अतः इसके बदले में तुम मुझे खा लो और इस धेनु को छोड़ दो। इस प्रकार तुम्हारो भूख भी मिट जायगो और गुरु के धन को रक्षा मी हो जायगी । तुम मुझपर कृपा करो। सिंह के बहुत समझाने पर मी जब राजा नहीं माने तो सिंह ने राजा को गौ के बदले खाना स्वीकार कर लिया। राजा ने सिंह के सामने अपने शरीर को मांसपिण्ड की तरह छोड़ दिया। इतने
SR No.032598
Book TitleRaghuvansh Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1987
Total Pages1412
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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