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________________ के दो भेद और दर्शन-मोह और चारित्र-मोह की याद दिला देते हैं। यह बात तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। एक अन्य श्लोक में भी गीताकार ने मोह (अविद्या-अज्ञान) और आसक्ति (तृष्णा, राग या लोभ) को नरक का कारण बताकर उनके बन्धकत्व को स्पष्ट किया है। वहाँ कहा गया है कि मोह-जाल में आवृत्त और काम-भोगों में आसक्त पुरुष अपवित्र नरकों में गिरते हैं । अर्थात् मोह और आसक्ति पतन के कारण हैं। सातवें अध्याय में गीता जैन विचारणा के समान संसार (अर्थात् बन्धन) के तीन कारणों की व्याख्या करती है। वहाँ गीता कहती है कि इच्छा (राग), द्वेष और तजनित मोह से सभी प्राणी अज्ञानी बन संसार के बन्धन को प्राप्त होते हैं। यहाँ गीताकार राग, द्वेष और मोह बन्धन के इन तीन कारणों की व्याख्या ही नहीं करता, वरन् इच्छा-द्वेष से उत्पन्न मोह कहकर जैनदर्शन के समान राग, द्वेष और मोह की परस्पर सापेक्षता को भी अभिव्यक्त कर देता है। सांख्य योग दर्शन में बन्धन का कारण- योगसूत्र में बन्धन या क्लेश के पाँच कारण माने गये हैं- १. अविद्या, २. अस्मिता (अहंकार), ३. राग (आसक्ति), ४. द्वेष और ५. अभिनिवेश (मृत्यु का भय)। इनमें भी अविद्या ही प्रमुख कारण है, क्योंकि शेष चारों अविद्या पर आधारित हैं। जैनदर्शन के राग, द्वेष और मोह (अविद्या) इसमें भी स्वीकृत हैं। न्याय दर्शन में बन्धन का कारण- न्यायदर्शन में जैनदर्शन के समान बन्धन के मूलभूत तीन कारण माने गये हैं- १. राग, २. द्वेष और ३. मोह। राग (आसक्ति) के भीतर काम, मत्सर, स्पृहा, तृष्णा, लोभ, माया तथा दम्भ का समावेश होता है तथा द्वेष में क्रोध, ईर्ष्या, असूया, द्रोह (हिंसा) तथा अमर्ष का। मोह (अज्ञान) में मिथ्याज्ञान, संशय, मान और प्रमाद होते हैं। राग और द्वेष मोह अथवा अज्ञान से उत्पन्न होते हैं।" इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाये तो सभी विचारणाओं में अविद्या (मोह) और राग-द्वेष ही बन्धन, दुःख या क्लेश के कारण हैं। [92] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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