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________________ २२. अनाकांक्षा क्रिया- स्वहित एवं परहित का ध्यान नहीं रखकर क्रिया करना। २३. प्रायोगिकी क्रिया- मन से अशुभ विचार, वाणी से अशुभ सम्भाषण एवं शरीर से अशुभ कर्म करके, मन, वाणी और शरीर शक्ति का अनुचित रूप में उपयोग करना। २४. सामुदायिक क्रिया- समूह रूप में इकट्ठे होकर अशुभ या अनुचित क्रियाओं का करना; जैसे- सामूहिक वेश्या-नृत्य करवाना। लोगों को ठगने के लिए सामूहिक रूप से कोई कम्पनी खोलना अथवा किसी को मारने के लिए सामूहिक रूप में कोई षड्यंत्र करना आदि। मात्र शारीरिक व्यापाररूप ईर्यापथिक क्रिया, जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है, को मिलाकर जैनविचारणा में क्रिया के पच्चीस भेद तथा आस्रव के ३९ भेद होते हैं। कुछ आचार्यों ने मन, वचन और काय योग को मिलाकर आस्रव के ४२ भेद भी माने हैं।' आस्रव रूप क्रियाओं का एक संक्षिप्त वर्गीकरण सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है। संक्षेप में वे क्रियाएँ निम्न प्रकार हैं-10 १. अर्थ क्रिया- अपने किसी प्रयोजन (अर्थ) के लिए क्रिया करना; जैसे- अपने लाभ के लिए दूसरे का अहित करना। २. अनर्थ क्रिया- बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला कर्म; जैसे- व्यर्थ में किसी को सताना। ३. हिंसा क्रिया- अमुक व्यक्ति ने मुझे अथवा मेरे प्रियजनों को कष्ट दिया है अथवा देगा, यह सोचकर उसकी हिंसा करना। ४. अकस्मात् क्रिया- शीघ्रतावश अथवा अनजाने में होने वाला पापकर्म; जैसे- घास काटते-काटते जल्दी में अनाज के पौधे को काट देना। ५. दृष्टि विपर्यास क्रिया- मतिभ्रम से होने वाला पाप-कर्म; जैसेचौरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड देना, मारना आदि। जैसे- दशरथ के द्वारा मृग के भ्रम में किया गया श्रवणकुमार का वध। कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया [ 85]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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