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________________ २. अधिकरणिका क्रिया- घातक अस्त्र-शस्त्र आदि के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली हिंसादि की क्रिया। इसे प्रयोग-क्रिया भी कहते हैं। ३.प्राद्वेषिकी क्रिया- द्वेष, मात्सर्य, ईर्ष्या आदि से युक्त होकर की जाने वाली क्रिया। ___४.पारितापनिकी- ताड़ना, तर्जना आदि के द्वारा दुःख देना। यह दो प्रकार की है- १. स्वयं को कष्ट देना और २. दूसरे को कष्ट देना। जो विचारक जैन दर्शन को कायाक्लेश का समर्थक मानते हैं उन्हें यहाँ एक बार पुनः विचार करना चाहिए। यदि उसका मन्तव्य कायाक्लेश का होता तो जैन दर्शन स्व-पारितापनिकी क्रिया को पाप के आगमन का कारण नहीं मानता। ५.प्राणातिपातकी क्रिया- हिंसा करना। इसके भी दो भेद हैं- १. स्वप्राणाति-पातकी क्रिया अर्थात् राग-द्वेष एवं कषायों के वशीभूत होकर आत्म के स्वस्वभाव का घात करना तथा २. परप्राणातिपातकी क्रिया अर्थात् कषायवश दूसरे प्राणियों की हिंसा करना। ६.आरम्भ क्रिया- जड़ एवं चेतन वस्तुओं का विनाश करना। ७.पारिग्राहिकी क्रिया- जड़ पदार्थों एवं चेतन प्राणियों का संग्रह करना। ८.माया क्रिया- कपट करना। ९.राग क्रिया- आसक्ति करना। यह क्रिया मानसिक प्रकृति की है इसे प्रेम प्रत्ययिकी क्रिया भी कहते हैं। १०. द्वेष क्रिया- द्वेष-वृत्ति से कार्य करना। ११. अप्रत्याख्यान क्रिया- असंयम या अविरति की दशा में होने वाला कर्म अप्रत्याख्यान क्रिया है। १२. मिथ्यादर्शन क्रिया- मिथ्यादृष्टित्व से युक्त होना एवं उसके अनुसार क्रिया करना। कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया [83]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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